अमृतगंगा ग्लेशियर में ‘सोल ऑफ स्टील’ टीम का प्रशिक्षण जारी
नई दिल्ली
देश भर के 23 युवाओं का दल 'सोल ऑफ स्टील' इस समय पूर्व सैनिकों के एक समूह के नेतृत्व में साहसिक चुनौतियों से निपटने के लिए अमृतगंगा ग्लेशियर में प्रशिक्षण हासिल कर रहा है।
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने जनवरी में उत्तराखंड के गढ़वाल हिमालय क्षेत्र में ऊंचाई वाले इलाकों में धैर्य और साहसिक कार्य को बढ़ावा देने के लिए ‘सोल ऑफ स्टील’ पहल की शुरुआत की थी। इस पहल का उद्देश्य पर्यटन और उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देना है।
एक आधिकारिक बयान के अनुसार, "भारतीय सेना के प्रशिक्षक और पूर्व सैनिकों का समूह क्लॉ ग्लोबल के नेतृत्व में भारत के 23 युवाओं की टीम अमृतगंगा ग्लेशियर में गहन प्रशिक्षण से गुजर रही है, जिसमें बर्फ पर चढ़ना, ग्लेशियर को जानना- समझाना, बर्फ में रहने लायक स्थानों की खोज, बचाव और निकासी तकनीक का प्रशिक्षण शामिल है।
बयान में कहा गया है कि यह प्रशिक्षण तथा ढाई महीने का समग्र प्रशिक्षण उन्हें विभिन्न चुनौतियों से निपटने का कौशल प्रदान करेगा।
तेजी से पिघल रहा है गंगा को जीवन देने वाला गंगोत्री ग्लेशियर
ग्लेशियरों के पिघलने की वजहों को लेकर वैज्ञानिकों के भले ही अलग-अलग मत हो लेकिन सच्चाई यह है कि भारत का दूसरा सबसे बड़ा और गंगा को जीवन देने वाला गंगोत्री ग्लेशियर तेजी से पिघल रहा है। ग्लोबल वार्मिंग, मनमौजी मौसम चक्र सहित कई स्थानीय वजहों से ग्लेशियर का गोमुख वाला हिस्सा तेजी से पीछे खिसक रहा है।
रक्तवन, चतुरंगी एवं कीर्ति ग्लेशियर के जंक्शन खाली होने के साथ ही कई अन्य सहायक ग्लेशियर या तो खत्म हो गये हैं या फिर समाप्ति की कगार पर हैं। गोमुख के पीछे मलबे के ढेर, छोटी-छोटी ग्लेशियर लेक जैसा बदरंग नजारा हकीकत बयां कर रहा है।
सरकारी आंकड़ों में 30.20 किमी लंबा गंगोत्री ग्लेशियर कंटूर मैपिंग के आधार पर अब पिघलकर 24 किलोमीटर से भी कम रह गया है। नासा के एक अध्ययन के अनुसार गंगोत्री ग्लेशियर 25 मीटर प्रतिवर्ष की रफ्तार से पीछे खिसक रहा है। हालांकि इसकी चौड़ाई और मोटाई में पिघलने की रफ्तार तथा सहायक ग्लेशियरों की स्थिति को लेकर अभी तक कोई आधिकारिक अध्ययन सामने नहीं आया है।
छह दशक से भी ज्यादा समय से गंगोत्री में डेरा डाल हिमशिखरों को लांघ कर हिमालय का पर्यावरणीय अध्ययन करने और साक्ष्य के तौर पर वर्ष 1948 से 1990 तक की अवधि में 8 क्विंटल स्लाइड एवं फोटो का संग्रह करने वाले 90 वर्षीय सुंदरानंद बताते हैं कि गंगोत्री ग्लेशियर चारों ओर से सिकुड़ रहा है। सीता, मेरू आदि कई ग्लेशियरों का अस्तित्व मिट चुका है।
वर्ष 1948 में गोमुख भोजवासा से महज आधा किमी आगे था अब यह दूरी 4.5 किमी हो गयी है। रक्तवन ग्लेशियर कभी करीब एक किमी चौड़ाई में पसरा था। अब यह महज 15 मीटर चौड़ा ही बचा है। पर्वतारोही दलों के साथ इस क्षेत्र में जाने वाले टूर ऑपरेटर करन कुटियाल भी स्वीकारते हैं कि रक्तवन ग्लेशियर खाली होकर अब वहां सिर्फ चट्टानें दिखती हैं।
पर्वतारोहियों को थेलू हिमशिखर पर जाने के लिए अब दो किमी घूमकर जाना पड़ता है। गर्मी हो या बरसात ग्लेशियरों के चटकने का सिलसिला जारी है। भोजवासा स्थित स्नो एंड एवलांच स्टडी स्टेब्लिशमेंट के निगरानी केंद्र के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2002 में भोजवासा में 16 फुट 21 सेमी बर्फ रिकार्ड हुई, लेकिन 2004 में 4200 मीटर की ऊंचाई वाले गोमुख तथा 4450 मीटर ऊंचे तपोवन जैसे उच्च हिमालयी शिखर बर्फ विहीन पाए गए।
भोजवासा से हाल ही में लौटे ब्रह्मचारी अनिल स्वरूप कहते हैं कि इस बार कम बर्फबारी और ग्लेशियर चटकने-पिघलने का दृश्य ग्लेशियरों के अस्तित्व पर मंडरा रहे खतरे को बयां कर रहा है।
ग्लेशियर चटकना-पिघलना एक सतत प्रक्रिया है। यह कई कारणों से तेज हो रही है। गोमुख से गंगोत्री तक 18 किमी दूर ग्लेशियर के टुकड़े आना मुश्किल है। गंगोत्री ग्लेशियर में मानवीय गतिविधियां सीमित की जानी चाहिए। साथ ही भोजवासा गोमुख क्षेत्र में वानस्पतिक आवरण बढ़ाने की जरूरत है। हरमे डोकराणी ग्लेशियर में ऑटोमेटिक वैदर स्टेशन तथा भोजवासा एवं चीड़वासा में कार्बन डाई ऑक्साइड मापने के यंत्र लगाए हुए हैं। बरसात के बार प्राप्त आंकड़ों के विश्लेषण के बाद ही कुछ कहा जा सकता है।