भारत में 83 फीसद रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल देश के महज 292 जिले में
नईदिल्ली
तेजी से बढ़ती आबादी की खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिए खेती में रासायनिक खाद के बढ़ते इस्तेमाल का आम लोगों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है. इस मुद्दे पर विशेषज्ञों की तमाम चेतावनियां भी अब तक बेअसर ही रही हैं. खाद्य विशेषज्ञ रासायनिक की जगह जैविक खाद के इस्तेमाल को बढ़ावा देने पर जोर दे रहे हैं.
रासायनिक खाद से बढ़ता खतरा
कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि रासायनिक उर्वरकों के अधिक मात्रा में उपयोग से न सिर्फ फसल प्रभावित होती है बल्कि इससे जमीन की सेहत, इससे पैदा होने वाली फसल को खाने वाले इंसानों और जानवरों की सेहत के साथ ही पर्यावरण पर भी बेहद प्रतिकूल असर पड़ता है. अनाज और सब्जियों के माध्यम से इस जहर के लोगों के शरीर में पहुंचने के कारण वे तरह-तरह की बीमारियों का शिकार बन रहे हैं.
धरती और किसानों को भी मार रहे हैं कीटनाशक
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की रिपोर्ट के मुताबिक रासायनिक खाद के बढ़ते इस्तेमाल के कारण देश की 30 फीसदी जमीन बंजर होने के कगार पर है. यूरिया के इस्तेमाल के दुष्प्रभाव के अध्ययन के लिए वर्ष 2004 में सरकार ने सोसायटी फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर की स्थापना की थी. उसने भी यूरिया को धरती की सेहत के लिए घातक बताया था. रासायनिक खाद व कीटनाशकों की सहायता से खेती की शुरुआत यूरोप में औद्योगिक क्रांति के साथ हुई थी. इसका मकसद था, कम जमीन पर अधिक पैदावार हासिल करना. बाद में विकासशील देश भी औद्योगीकरण और आधुनिक खेती को विकास का पर्याय मानने लगे. रासायनिक उर्वरकों की खपत बढ़ने से जहां एक ओर लागत बढ़ी वहीं दूसरी ओर उत्पादकता में गिरावट आने के कारण किसानों के लाभ में भी कमी आई.
यूरिया के अत्यधिक इस्तेमाल ने नाइट्रोजन चक्र को भी बुरी तरह प्रभावित किया है. नाइट्रोजन चक्र बिगड़ने का दुष्परिणाम केवल मिट्टी-पानी तक सीमित नहीं रहा है. नाइट्रस ऑक्साइड के रूप में यह एक ग्रीनहाउस गैस भी है और वैश्विक जलवायु परिवर्तन में इसका बड़ा योगदान है.
केंद्रीय रसायन और उर्वरक मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार 1950-51 में भारतीय किसान मात्र सात लाख टन रासायनिक उर्वरक का प्रयोग करते थे. यह अब कई गुणा बढ़कर 335 लाख टन हो गया है. इसमें 75 लाख टन विदेशों से आयात किया जाता है. विशेषज्ञों का कहना है कि रासायनिक खाद के बढ़ते इस्तेमाल से पैदावार तो बढ़ी है. लेकिन साथ ही खेत, खेती और पर्यावरण पर इसका प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ा है.
कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल में कटौती नहीं की गई तो मानव जीवन पर इसका काफी दुष्प्रभाव पड़ेगा. उनके मुताबिक, खाद्यान्नों की पैदावार में वृद्धि की मौजूदा दर से वर्ष 2025 तक देश की आबादी का पेट भरना मुश्किल हो जाएगा. इसके लिए मौजूदा 253 मीट्रिक टन खाद्यान्न उत्पादन को बढ़ा कर तीन सौ मीट्रिक टन के पार ले जाना होगा.
बीते पांच वर्षों के दौरान देश में रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल भी बढ़ा है. वर्ष 2015-16 के दौरान जहां देश में करीब 57 हजार मीट्रिक टन ऐसे कीटनाशकों का इस्तेमाल किया गया था वहीं अब इस तादाद के बढ़ कर करीब 65 हजार मीट्रिक टन तक पहुंचने का अनुमान है. इस मामले में महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश शीर्ष पर हैं. राष्ट्रीय स्तर पर इस्तेमाल होने वाले रासायनिक कीटनाशकों में से करीब 40 फीसदी इन दोनों राज्यों में ही इस्तेमाल किए गए. इस मामले में गोवा और पुद्दुचेरी जैसे छोटे राज्यों का स्थान सबसे नीचे रहा. इनके अलावा सिक्किम और मेघालय जैसे पूर्वोत्तर राज्यो को ऑर्गेनिक राज्य का दर्जा मिला.
अब असम सरकार ने खतरनाक रासायनिक खाद के इस्तेमाल की पाबंदी लगाने की दिशा में पहल की है. असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने कहा है कि वह खाद जिहाद को खत्म करेंगे. जैविक खेती के फायदे गिनाते हुए सरमा का कहना है कि उर्वरकों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए, लेकिन यह इतना ज्यादा नहीं हो कि सब कुछ जहरीला हो जाए.
जर्मनी में भी बैन होगा ग्लाइफोसेट
सरमा ने बीजेपी के चुनावी वादों की भी याद दिलाई जिसमें इसे खत्म करने की बात कही गई थी. उनकी दलील है कि उर्वरकों के ज्यादा इस्तेमाल की वजह से हृदय और किडनी के रोग जैसी कई घातक बीमारियां बढ़ती हैं. उन्होंने राजधानी गुवाहाटी में एक कार्यक्रम में बताया कि बताया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी असम में जैविक खेती को बढ़ावा देने का सुझाव दिया है. लेकिन खाद जिहाद का नाम देने के कारण उनके इस फैसले पर विवाद भी हो रहा है. इसकी वजह यह है कि दरंग समेत राज्य के जिन इलाकों में बड़े पैमाने पर साग-सब्जियां उगाई जाती हैं वह मुस्लिम बहुल हैं.
पहल अच्छी, लेकिन शब्द कैसा
अखिल असम अल्पसंख्यक छात्र संघ (आम्सू) के अध्यक्ष रेजाउल करीम सरकार मुख्यमंत्री के बयान को राजनीतिक करार देते हैं. उनका कहना है कि यह मुख्यमंत्री का राजनीतिक खेल है. वो जानते हैं कि मुस्लिम तबके को निशाना बनाने की स्थिति में राजनीति में उनकी जमीन मजबूत हो सकती है.