September 28, 2024

डॉक्‍टरी पढ़ने वालों को भी नहीं बख्‍श रहा स्‍क्रीन टाइम, गोरखपुर AIIMS में MBBS छात्रों की आंखों पर रिसर्च में नया खुलासा

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गोरखपुर
 यह डिजिटल क्रांति का दौर है। एमबीबीएस की पढ़ाई कर रहे छात्रों के जीवन का अभिन्न हिस्सा टीवी, मोबाइल और लैपटॉप बन गया है। अब तो इसमें स्मार्ट क्लास भी जुड़ गया है। एम्स में ऑनलाइन वर्कशॉप और वेबिनार हो रहे हैं। इससे मेडिकल छात्रों का स्क्रीन टाइम लगातार बढ़ रहा है। यह बढ़ता स्क्रीन टाइम छात्रों की आंखों पर दबाव दे रहा है। उनकी आंखें बीमार हो रही हैं। करीब 42 फीसद छात्र आंखों की बीमारी से जूझ रहे हैं।

यह खुलासा हुआ है अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) की एमबीबीएस छात्रा महक सबरवाल की रिसर्च में। वर्ष 2019 बैच की एमबीबीएस छात्रा ने यह शोध नेत्र रोग विभाग की शिक्षिका डॉ. अलका त्रिपाठी की निगरानी में किया। इसका उद्देश्य छात्रों में ड्राई आई बीमारी का पता लगाना था। शोध में एमबीबीएस की पढ़ाई कर रहे 80 छात्रों को शामिल किया गया। रिसर्च को आईसीएमआर से मिली थी मंजूरी एम्स की कार्यकारी निदेशक डॉ. सुरेखा किशोर ने बताया कि इसे आईसीएमआर के मेडिकल रिसर्च यूनिट प्रोग्राम के जरिए किया गया। एम्स के नेत्र रोग विभाग की डॉ. ऋचा अग्रवाल के अलावा कम्युनिटी मेडिसिन व फैमिली मेडिसिन के डॉ. प्रदीप खरया भी शामिल रहे। यह शोध अंतरराष्ट्रीय द पैन अमेरिकन जर्नल ऑफ आप्थेमोलॉजी के पिछले वर्ष के जुलाई अंक में प्रकाशित हुआ है।

25 छात्रों में आंखों की बीमारी के लक्षण
डॉ. अलका ने बताया कि करीब 42 फीसदी छात्रों की आंखों पर दबाव बढ़ा मिला। उन्हें आई स्ट्रेन की समस्या हुई। जिसमें आंखों पर तनाव रहता है। टीम के 33 छात्रों ने सिर दर्द की समस्या बताई। इसके बाद छात्रों की दो पद्धतियों से जांच भी की गई। सिमर टेस्ट में 25 फीसदी छात्रों की आंखों में बीमारियों के लक्षण मिले। जिसमें ड्राई आई के मामले सर्वाधिक रहे। इसके अलावा ऑकुलर सरफेस डिजीज इंडेक्स के जरिए भी छात्रों के आंखों पर दबाव की जांच की गई। इसमें 41 छात्रों की आंखों में बीमारियों की पहचान हुई।

शोध के लिए तीन बैच में रखे गए छात्र
रिसर्च के लिए 95 छात्र आगे आए थे। उनमें से अलग-अलग कारणों से 15 छात्र छट गए। चयनित 80 छात्रों को 2 महीने तक अलग-अलग बैच में नियंत्रित स्क्रीन टाइम में रखा गया। निर्देशिका डॉ. अलका त्रिपाठी ने बताया इसके लिए छात्रों के 3 बैच बनाए गए। उन्हें 2 महीने तक अलग-अलग स्क्रीन टाइम में रहना था। छात्र दिन भर में 2 घंटे, 4 घंटे और 6 घंटे डिजिटल दुनिया के संपर्क में रहे। इसके बाद समय-समय पर उनके आंखों की जांच की गई।

 

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