जनता जमूरी नहीं है उस्ताद !
रुचिर गर्ग
2014 और आज के हालात में फर्क है। बहुत फर्क है।
फर्क तो 2014 और 2019 में भी था लेकिन तब पुलवामा हो गया था।
तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वो किया था जो इस लोकतांत्रिक देश के इतिहास में कभी नहीं हुआ – फौज का राजनीतिक इस्तेमाल!
पुलवामा के सवाल आज भी जिंदा हैं ,अनुत्तरित हैं इस बात से ना मोदी जी को फर्क पड़ता है,ना उनकी सरकार को , ना उनकी भारतीय जनता पार्टी को और दुर्भाग्य से न ही उनके समर्थकों को।
समर्थकों की तादाद आज कितनी है ये तो पता नहीं पर उनके विरोधियों की तादाद बढ़ती जा रही है,उन लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है जिनके सामने मोदी तिलिस्म और उसका एजेंडा हर रोज परत दर परत उधड़ रहा है।
इसका अंदाज नरेंद्र मोदी को और उनके इवेंट मैनेजरों को भरपूर होगा।
जनता की स्मृति छोटी होती है और वो जनता जब वोटर की शक्ल ले लेती है तो उसे पोलिंग बूथ तक पहुंचते–पहुंचते भी भरमाने की कोशिश की जा सकती है।
वोटर जब मुखर होता है और वोटर जब शांत होता है स्थितियां अलग होती हैं।
2014 का वोटर यूपीए के खिलाफ मुखर था और 2019 का वोटर राष्ट्रवाद की राजनीतिक अंगीठी में सिक रहा था, बॉर्डर पर खुद ही चले जाने को मचल रहा था।
अब 2024 और उससे पहले राज्यों के चुनाव के वोटर का मिजाज क्या होगा ?
प्रधानमंत्री ने इस मिजाज को अपने अर्थों में भांप लिया है ऐसा लगता है।
कर्नाटक में कमीशनखोरी के बड़ा मुद्दा बनने और उनकी पार्टी की सरकार की हार के बाद मोदी जी ने आगे के चुनावों में भ्रष्टाचार को ही मुद्दा बनाने का फैसला किया है,ऐसा नजर आ रहा है।
मतलब उन्हें कर्नाटक का जवाब न राजस्थान में देना है ,ना छत्तीसगढ़ में क्योंकि वो चुनाव तो बीत गया ! अब उसकी बात करना तो चुनावी लोकतंत्र के भाजपाई नियमों के खिलाफ है और मोदी जी तो नियमों से चलने वाले पीएम जी हैं !
खैर ,कर्नाटक का जवाब न तब दिया ना अब।
छत्तीसगढ़ आए तो यहां की कांग्रेस सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हैं और राजस्थान गए तो वहां की कांग्रेस सरकार के खिलाफ बहुत ही नाटकीय अंदाज में कथित लाल डायरी का जिक्र करते हैं ।
मोदी जी ने जनता को जमूरा मान लिया है और खुद उसके उस्ताद की भूमिका में मंच से एकतरफा संवाद करते हैं ।
तालियां बजाने के लिए मीडिया मौजूद ही रहता है।
लोकतंत्र की सेहत के लिए यह बहुत जरूरी है कि भ्रष्टाचार मुद्दा बनता रहे।
देश में अब लोकपाल भी है। वहां कितने मुद्दे पहुंच रहे हैं और कितनों का निराकरण हो रहा है यह देखने के लिए लोकपाल की वेबसाइट भी खंगालनी चाहिए।
लेकिन अभी सवाल यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राज्यों में भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहे हैं–राज्य मतलब केवल विपक्ष शासित राज्य,मतलब INDIA के राज्य।उनमें भी खासतौर पर कांग्रेस शासित राज्य।
बीजेपी शासित राज्यों में नरेंद्र मोदी राम जी और हनुमान जी की ही चर्चा करते हैं।
मोदी जी को लगता है कि छत्तीसगढ़ या राजस्थान की जनता को हिंडनबर्ग रिपोर्ट याद नहीं होगी,अडानी से जुड़े बीस हजार करोड़ के सवाल याद नहीं होंगे या विदेश भागे नीरव भाई ,मेहुल भाई,माल्या भाई जैसे लोग याद नहीं होंगे!
उन्हें लगता है कि जनता ना महंगाई पर प्रधानमंत्री का जवाब जानना चाहती है ना बेरोजगारी पर और न उनके कार्यकाल में बढ़ी नफरत और हिंसा पर।
उन्हें लगता है कि उनकी बाजगारी से देश आज इतना सम्मोहित है कि चीन की घुसपैठ भूल जाएगा और कोरोना के दौरान मजदूरों को मिली अमानवीय यातनाएं भी।
भ्रष्टाचार पर इतने चिंतित प्रधानमंत्री क्या देश को बताएंगे कि तत्कालीन यूपीए सरकार के बनाए आरटीआई एक्ट को इतना कमजोर क्यों किया गया ?इस पर नहीं बोलेंगे।
वो चंद उद्योगपतियों के हित में इस देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ सार्वजनिक क्षेत्र की सुनियोजित तबाही के सवालों पर भी मौन रहेंगे।
मोदी जी को लगता है कि मणिपुर पर भी उनका मौन देश को स्वीकार्य है।
मोदी जी कभी ये नहीं बताते कि INDIA शासित राज्यों के प्रति उनकी सरकार का रवैया क्या है।
मोदी जी से देश जानना चाहता है कि बैंकों में रखा जनता का धन सुरक्षित है या नहीं पर मोदी जी जवाब नहीं देते।बताते नहीं कि उद्योगपतियों का कितने लाख करोड़ रुपए का कर्ज राइट ऑफ करने के नाम पर माफ कर दिया गया। ( कमेंट बॉक्स में वरिष्ठ पत्रकार Girish Malviya की truejournalist में प्रकाशित रिपोर्ट पढ़ें )
दरअसल मोदी जी और उनकी पार्टी को लगता है कि मुद्दा वही है जो वे बताएं और मीडिया सजाए!
ऐसा हुआ था,फिर–फिर हुआ पर क्या हर बार ऐसा ही होगा?
भ्रष्टाचार को मुद्दा बनना चाहिए,हर बार बनना चाहिए लेकिन क्या केवल चुनावी राज्यों में विपक्ष के खिलाफ !
ये ठीक है कि नरेंद्र मोदी पूरे साल चौबीसों घंटे चुनावी मुद्रा में रहते हैं और अभी तो चुनाव प्रचार पर ही हैं, लेकिन सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने लिखा था देश महज कागज़ पर बना नक्शा नहीं होता।
मोदी जी के लिए जवाबदेही शून्य है और देश महज ईवीएम हो गया है।
कागज़ पर बने नक्शे की तरह !
पिछले नौ वर्षों में लोकतंत्र की तमाम संस्थाओं को गमले में उगा पौधा बना कर रख दिया गया है लेकिन किसी को सवाल नहीं पूछना चाहिए कि प्रधानमंत्री जी सब कुछ अगर राजस्थान या छत्तीसगढ़ में है तो क्या बाकी देश ठीक चल रहा है?
वो शायद अपने उद्योगपति मित्रों की बैलेंस शीट देख कर कहें कि ठीक ही चल रहा होगा !
यह किसी भी राज्य में भ्रष्टाचार का पक्ष लेना नहीं है लेकिन इतना पूछना जरूर है कि जब आप भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने निकले हैं तो सबसे बड़े सवाल..हजारों और लाखों करोड़ के सवाल तो आपकी ओर उठे हुए हैं प्रधानमंत्री जी।इन पर सवाल हों तो संसद में माइक बंद कर दिया जाता है !
तथ्यों और आंकड़ों में ये सवाल बहुत बड़े हैं। इन सवालों में किसी कथित लाल डायरी सी सनसनी नहीं देश की तबाही की चिंताएं है।
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता से लेकर पड़ोसी देशों से संबंध और हास्यास्पद विदेशी उपस्थिति तक ,गरीबी से लेकर बेरोजगारी तक,आर्थिक ,सामाजिक मोर्चों पर ऐसा शायद ही कोई पैमाना होगा जहां मोदी सरकार के आगे बड़े अक्षरों में विफल ना लिखा हो पर दुर्भाग्य से देश का प्रधानमंत्री इनमें से किसी बात के लिए जवाबदेह नहीं है।
उनसे आप ये भी नहीं पूछ सकते कि जिन ट्रेनों को उन्होंने हरी झंडी दिखाई है वे समय पर चल रहीं हैं या नहीं ?
दरअसल जनता को प्रधानमंत्री जी से बस ट्रेनों की लेट लतीफी के ही सवाल करने चाहिए और बाकी सवालों को मतदान के दिन के लिए सुरक्षित रख लेना चाहिए।
जनता को इस बार उस्ताद को बताना चाहिए कि वो जमूरी नहीं लोकतंत्र की साफ हवा में सांस लेने की अधिकारी है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है, इन दिनों छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के सलाहकार है )