सैयद शाह की दरगाह, जहां ढाका के नवाब ने मांगी थी मन्नत, जानिए क्या है मान्यता
जहानाबाद
जहानाबाद जिले के अमथुआ स्थित प्रसिद्ध सूफी संत सैयद शाह मोहम्मद हयात रहमानी का दरगाह हिन्दू-मुस्लिम दोनों समुदायों के लिए आस्था का केन्द्र है। यहां सालाना उर्स पर काफी भीड़ लगती है। दरगाह पर मन्नतें लेकर बड़ी संख्या में दूसरे राज्य से भी सैलानी आते हैं। मान्यता है कि दरगाह पर चादर चढ़ाने और दुआ मांगने से लोगों की मुरादें पूरी होती है।
यह प्रसिद्ध स्थल जिला मुख्यालय जहानाबाद से 13 किमी और काको प्रखंड मुख्यालय से आठ किमी दूरी पर स्थित है। यहां सूफी संतों का बसेरा होने के कारण वर्तमान में अमथुआ शरीफ के नाम से जाना जाता है। अमथुआ को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने एवं मुसाफिरखाना के निर्माण के लिए पयर्टन विभाग ने जिला प्रशासन को पत्र भेजा है।
अमथुआ निवासी बिहार राज्य हज कमेटी के सदस्य मेराज अहमद सुड्डु बताते हैं कि सूफी संत सैयद शाह हयात दाता कम्बल शाह के समकालीन और शागिर्द माने जाते हैं, जिनका अस्ताना (दरगाह) मुजफ्फरपुर में मौजूद है। अमथुआ में दरगाह के पास प्रसिद्ध खानकाह और मस्जिद भी है। सैयद शाह मोहम्मद हयात रहमानी का जन्म लगभग 1817 में हुलासगंज के पास संडा नामक गांव में हुआ था। बचपन से ही सूफियाना और दीनी मिजाज रखने वाले सैयद शाह गुजारिश लिए दाता कम्बल शाह के पास पहुंचे थे, जहां लगभग 40 साल तक दाता कम्बल शाह के सरपरस्ती में रहे। दाता कम्बल शाह ने इन्हें काको के अमथुआ शरीफ जाने को कहा था। अपने पीर के हुक्म पर एक कम्बल के साथ अमथुआ पहुंचे। वहां झोपड़ी बना कर रहते थे।
ढाका के नवाब ख्वाजा मन्नत लेकर पहुंचे थे अमथुआ
बताया जाता है कि कम्बल शाह के दर पर ढाका के नवाब ख्वाजा सलीमुल्लाह औलाद की मन्नत लिए पहुंचे, जहां से नवाब को अमथुआ जाने को कहा गया था। लगभग 150 वर्ष पूर्व काफी मशक्कत के बाद किसी तरह नवाब सुदूरवर्ती इलाके अमथुआ पहुंचे थे, जहां झोपड़ी में बैठे सूफी संत सैयद शाह ने नवाब के बिना कुछ बोले ही उन्हें औलाद की ख्वाहिश जल्द पूरी होने की दुआ के साथ विदा किया था। नवाब को जब बेटा हुआ तो उसका नाम रखने के लिए खुद सूफी संत के पास पहुंचे थे।औलाद होने की खुशी में बंगाल से कारीगर बुलवाकर नवाब ने खानकाह का निर्माण कराया, जो खानकाह हयातिया के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
छड़ी, तस्बीह का जायरीन करते हैं दीदार
अमथुआ में सैयद हयात शाह रहमा को लोग सरकार दादा या पीर दादा के नाम से सम्बोधित करते हैं। इनके एक सेवक बाबू गंगाराम आजीवन इनकी सेवा में रहे। उन्हें भी वहीं दफन किया गया। सेवक बाबू गंगाराम की मजार आज भी आस्ताने में मौजूद है। लगभग 100 वर्ष के आयु के बाद 2 जनवरी 1916 को हज़रत सय्यद शाह हयात रहमा ने नश्वर शरीर का त्याग किया था। बाद उन्हें अमथुआ में ही सपुर्द-ए-खाक किया गया और तबसे उनके आस्ताने (दरगाह) पर जायरीनों द्वारा चादरपोशी की जा रही है। इस वक्त प्रसिद्ध सूफी संत की पांचवीं पीढ़ी के सैयद शाह मो. इरफान सज्जादानशीं हैं। यहां सूफी संत सरकार दादा की छड़ी, तस्बीह, किताबें, तकिया और अन्य सामान मौजूद हैं, जिनका दीदार जायरीनों को उर्स के दिन कराया जाता है।