November 25, 2024

अब क्या कृत्रिम बारिश से ही दिल्ली-एनसीआर को मिल सकता है स्मॉग के कहर से छुटकारा, कैसे होती है ये

0

नई दिल्ली

दिल्ली-एनसीआर में पिछले दो दिनों से स्मॉग की घनी चादर छाई हुई है. बाहर खुले में निकलने वालों की आंखों में जलन हो रही है. सांस लेने में तकलीफ हो रही है और खांसी की शिकायत आम है. सबसे ज्यादा मुश्किल में वो लोग हैं, जो सांस की बीमारियों से पीड़ित हैं. कुछ लोगों में ये स्मॉग की स्थिति सांस की बीमारियों की नई स्थितियां पैदा करने लगा है. ये स्मॉग छंटेगा कैसे – हर कोई ये सवाल पूछ रहा है. आमतौर पर इस स्थिति बारिश बड़ा वरदान बनकर आती है और हवा को साफ कर देती है लेकिन मौसम विभाग के अनुमान कहते हैं कि दीवाली से पहले तो बारिश की कोई संभावना दिखती नहीं. ऐसे में क्या कृत्रिम बारिश ही ऐसा विकल्प बचा है, जो स्मॉग के कहर से बचा सकता है.   वैसे भारत में 03-04 पहले भी वायु प्रदूषण से बचाव के लिए कृत्रिम बारिश की पूरी तैयारी कर ली गई थी.

दिल्ली सरकार के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दो एक बार तब कृत्रिम बारिश कराने की चर्चा की थी, जब दिल्ली में कम बारिश हो रही थी या गरमी के मारे बुरा हाल था. वैसे भारत के पास कृत्रिम बारिश कराने की तकनीक है और हमारे देश में कई जगहों पर समय समय पर ऐसी बारिश कराई भी गई है. ऐसी बारिश होने पर हवा में मिला प्रदूषण पानी के साथ मिलकर जमीन पर आ जाएगा और हवा एकदम साफ हो जाएगी, जो लोगों के स्वास्थ्य के लिहाज से बहुत निजात दिला सकती है.

पिछले साल गरमी से तपते संयुक्त अरब अमीरात ने द्रोन के जरिए बादलों को इलैक्ट्रिक चार्ज करके अपने यहां आर्टिफिशियल बारिश कराई थी. हालांकि ये बारिश कराने की नई तकनीक है. इसमें बादलों को बिजली का झटका देकर बारिश कराई जाती है. इलैक्ट्रिक चार्ज होते ही बादलों में घर्षण हुआ और दुबई और आसपास के शहरों में जमकर बारिश हुई.

50 के दशक में भारतीय वैज्ञानिकों ने प्रयोग करते हुए महाराष्ट्र और यूपी के लखनऊ में कृत्रिम बारिश कराई थी. दिल्ली में 02-03 साल पहले वायु प्रदूषण से निपटने के लिए कृत्रिम बारिश की तैयारी कर ली गई थी.

हालांकि दुबई और उसके आसपास के शहरों में हुई कृत्रिम बारिश बिल्कुल नई तकनीक से हुई है. इसमें द्रोन का प्रयोग हुआ. दरअसल यूनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग के वैज्ञानिक इस पर पिछले कुछ समय से बढ़िया काम कर रहे हैं. हालांकि ये बारिश कराना काफी मंहगा है. कृत्रिम बारिश और भी तरीकों से होती रही है. उसमें आमतौर पर पहले कृत्रिम बादल बनाए जाते हैं और फिर उनसे बारिश कराई जाती है. कई देशों में ऐसा होता रहा है.

कैसे होती है कृत्रिम बारिश
कृत्रिम बारिश करना एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है. इसके लिए पहले कृत्रिम बादल बनाए जाते हैं. पुरानी और सबसे ज्यादा प्रचलित तकनीक में विमान या रॉकेट के जरिए ऊपर पहुंचकर बादलों में सिल्वर आयोडाइड मिला दिया जाता है. सिल्वर आयोडाइड प्राकृतिक बर्फ की तरह ही होती है. इसकी वजह से बादलों का पानी भारी हो जाता है और बरसात हो जाती है.

कुछ जानकार कहते हैं कि कृत्रिम बारिश के लिए बादल का होना जरूरी है. बिना बादल के क्लाउड सीडिंग नहीं की जा सकती. बादल बनने पर सिल्वर आयोडाइड का छिड़काव किया जाता है. इसकी वजह से भाप पानी की बूंदों में बदल जाती है. इनमें भारीपन आ जाता है और ग्रैविटी की वजह से ये धरती पर गिरती है. वर्ल्ड मेट्रोलॉजिकल ऑर्गेनाइजेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर के 56 देश क्लाउड सीडिंग का प्रयोग कर रहे हैं.

इसे क्लाउड सीडिंग कहा जाता है
कृत्रिम बारिश की ये प्रक्रिया बीते 50-60 वर्षों से उपयोग में लाई जा रही है. इसे क्लाउड सीडिंग कहा जाता है. क्लाउड सीडिंग का सबसे पहला प्रदर्शन फरवरी 1947 में ऑस्ट्रेलिया के बाथुर्स्ट में हुआ था. इसे जनरल इलेक्ट्रिक लैब ने अंजाम दिया था.

60 और 70 के दशक में अमेरिका में कई बार कृत्रिम बारिश करवाई गई. लेकिन बाद में ये कम होता गया. कृत्रिम बारिश का मूल रूप से प्रयोग सूखे की समस्या से बचने के लिए किया जाता था.

बारिश के खतरे को टालने के लिए भी होता है ऐसा प्रयोग
चीन कृत्रिम बारिश का प्रयोग करता रहा है. 2008 में बीजिंग ओलंपिक के दौरान चीन ने इस विधि का प्रयोग 21 मिसाइलों के जरिए किया था. जिससे बारिश के खतरे को टाल सके. हालांकि हाल ही में चीन की ओर से ऐसी कोई खबर नहीं आई जिससे जाहिर हो कि वह अब भी इस विधि का प्रयोग प्रदूषण से निपटने के लिए करता है. जानकारों का कहना है कि चीन ने अब प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए क्लाउड सीडिंग बंद कर दी है.

वर्ष 2018 में थी दिल्ली में कृत्रिम बारिश की तैयारी
वर्पिष 2018 में दिल्ली में प्रदूषण बढ़ने पर कृत्रिम बारिश करवाने की तैयारी की गई थी. आईआईटी कानपुर के वैज्ञानिकों ने वायु प्रदूषण की गंभीर स्थिति से निपटने के लिए आर्टिफिशियल रेन की तैयारी कर ली थी. बस मौसम अनुकूल होने का इंतजार किया जा रहा था. आईआईटी के प्रोफेसर ने कृत्रिम बारिश करवाने के लिए इसरो से विमान भी हासिल कर लिया था. लेकिन मौसम अनुकूल नहीं होने की वजह से कृत्रिम बारिश नहीं करवाई जा सकी.

लखनऊ और महाराष्ट्र में हो चुका है प्रयोग
कृत्रिम बारिश की तकनीक महाराष्ट्र और लखनऊ के कुछ हिस्सों में पहले ही परखी जा चुकी है. लेकिन प्रदूषण से निपटने के लिए किसी बड़े भूभाग में इसका प्रयोग नहीं हुआ है. हालांकि भारत में कई दशकों से कृत्रिम बारिश सफलता के साथ कराई जाती रही है. इसे लेकर आईआईटी से संबद्ध द रैन एंड क्लाउड फिजिक्स रिसर्च का काफी योगदान रहा है.

भारत में क्लाउड सीडिंग का पहला प्रयोग 1951 में हुआ था. भारतीय मौसम विभाग के पहले महानिदेशक एस के चटर्जी जाने माने बादल विज्ञानी थे. उन्हीं के नेतृत्व में भारत में इसके प्रयोग शुरू हुए थे. उन्होंने तब हाइड्रोजन गैस से भरे गुब्बारों में नमक और सिल्वर आयोडाइड को बादलों के ऊपर भेजकर कृत्रिम बारिश कराई थी. भारत में क्लाउड सीडिंग का प्रयोग सूखे से निपटने और डैम का वाटर लेवल बढ़ाने में किया जाता रहा है.

देश में लगातार ऐसी बारिश कराई जाती रही है
टाटा फर्म ने 1951 में वेस्टर्न घाट में कई जगहों पर इस तरह की बारिश कराई. फिर पुणे के रैन एंड क्लाउड इंस्टीट्यूट ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र कई इलाकों में ऐसी कृत्रिम बारिश कराई. भारत में वर्ष 1983, 84 में ऐसी बारिश कराई गई तो 93-94 में सूखे से निपटने के लिए तमिलनाडु में ऐसा काम हुआ. 2003-04 में कर्नाटक में आर्टिफिशियल बारिश कराई गई. वर्ष 2008 में आंध्र प्रदेश के 12 जिलों में इस तरह की बारिश कराने की योजना थी. कहने का मतलह ये है कि भारत कृत्रिम बारिश के क्षेत्र में काफी आगे रहा है.

पिछले साल आईआईटी के प्रोफेसरों ने बताया था कि मॉनसून से पहले और इसके दौरान कृत्रिम बारिश कराना आसान होता है. लेकिन सर्दियों के मौसम में ये आसान नहीं होती. क्योंकि इस दौरान बादलों में नमी की मात्रा ज्यादा नहीं होती.

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *