सत्ता की सियासत: चित्तौडगढ़ में त्रिकोणीय मुकाबला
चित्तौडगढ़.
जनता यदि किसी उम्मीदवार को सिर आंखों पर बैठा ले तो फिर जो नजारा सामने होता है, वैसा ही कुछ इस बार शौर्य और बलिदान की भूमि चित्तौडगढ़ में देखने को मिल रहा है। भाजपा से टिकट न मिलने से नाराज चंद्रभान सिंह आक्या निर्दलीय मैदान में आ गए हैं और जो समर्थन उन्हें मिल रहा है, उसके बाद यह तो साफ हो ही गया है कि हार-जीत किसी की भी हो, लेकिन यहां मुकाबला कांग्रेस और निर्दलीय उम्मीदवार के बीच ही है।
भाजपा तीसरे नंबर पर है और कोई चमत्कार ही उसे पहले दो में ला सकता है। मुकाबला कितना रोचक और कड़ा है, इसका अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि सालों तक राजस्थान की राजनीति के बेताज बादशाह रहे भैरोसिंह शेखावत के दामाद नरपत सिंह राजवी के सामने अशोक गहलोत के खास सिपाहासालार सुरेंद्र सिंह जाड़ावत और 10 साल विधायक रहे चंद्रभान सिंह आक्या
है। राजवी 1993 और 2003 में यहां से विधायक रह चुके हैं। कई साल राजस्थान में मंत्री भी रहे हैं। एक जमाना था, जब राजस्थान भाजपा की राजनीति के सारे सूत्र उनके इर्द-गिर्द थे। जाड़ावत भी चित्तौड़ से विधायक रह चुके हैं और उनके राजनैतिक वजन का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि लगातार दो चुनाव हारने के बावजूद गहलोत की पसंद के चलते वे एक बार फिर मैदान में हैं। पिछला चुनाव हारने के बाद गहलोत ने उन्हें मंत्री का दर्जा देते हुए अपने सलाहकार की भूमिका में रखा था।
फिर आक्या ने कर दी थी बगावत
आक्या इस बार भी यहां से टिकट के प्रबल दावेदार थे, उनकी तैयारी भी इसी हिसाब से थी, लेकिन जयपुर की विद्याधर नगर सीट से टिकट गंवाने के बाद नई सीट तलाश रहे राजवी के लिए चित्तौड़गढ़ के सांसद और भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष सीपी जोशी मददगार साबित हुए और अपने पुराने निर्वाचन क्षेत्र से टिकट पाने में सफल रहे। इसके बाद आक्या ने बगावत की और बड़ी संख्या में भाजपा नेता और कार्यकर्ता उनके साथ निकल पड़े। अब हालत यह है कि आक्या दोनों दलों के उम्मीदवारों पर भारी पड़ रहे हैं। बीते बुधवार को चित्तौडगढ़ के इंदिरा गांधी स्टेडियम में उनकी सभा में तकरीबन 50 हजार लोग मौजूद थे। वे तमाम दिग्गज जो चित्तौड़ की राजनीति में भाजपा के आधारस्तंभ माने जाते थे, पार्टी छोड़ उनके साथ खड़े थे। सभा के बाद रोड शो की शक्ल में उनका काफिला जब चित्तौड़ की सड़कों पर निकला तो हजारों लोग उन्हें समर्थन देने के लिए सड़क के दोनों ओर खड़े थे।
चित्तौड़गढ़ के स्वाभिमान से जुड़ा चुनाव
दरअसल, यहां के चुनाव को आक्या समर्थकों ने चित्तौड़ के स्वाभिमान से जोड़ दिया है। नई पीढ़ी के लोग पिछले 15 दिन से अपना कामकाज छोड़ उनके प्रचार में लगे हैं। संघ के कई दिग्गज उनके मुख्य रणनीतिकार की भूमिका में हैं। यहां के जातीय समीकरण को देखा जाए तो राजपूत के साथ ही जाट, गुर्जर और ब्राह्मण मतदाता अहम भूमिका में हैं। राजपूतों में अच्छी पकड़ के बावजूद राजवी इस बार आक्या के सामने असहाय हैं। जाटों के बड़े नेता बद्री जाट खुलकर आक्या के साथ आ गए हैं और कुछ दिनों पहले एक सभा में अपनी पगड़ी चित्तौड़ की जनता के सामने रखते हुए उन्होंने यह ऐलान कर दिया कि जब तक आक्या चुनाव नहीं जीत जाएंगे, वे पगड़ी नहीं पहनेंगे। इन परिस्थितियों में यहां सबसे ज्यादा दिक्कत राजवी को ही हो रही है।
क्या कांग्रेस को भाजपा के वोट बैंक का फायदा मिलेगा
सुरेंद्र सिंह जाड़ावत की भी चित्तौड़ की राजनीति में अच्छी पकड़ मानी जाती है। पिछले पांच साल गहलोत के मुख्य सलाहकार की भूमिका में रहते हुए सत्ता और संगठन दोनों में उनकी खासी दखल रही। राजस्थान सरकार के जनता से जुड़े काम भी उनकी राह आसान किए हुए हैं। चिरंजीवी योजना और ओल्ड पेंशन स्कीम कांग्रेस का ब्राह्मास्त्र है और इसका फायदा उठाने में जाड़ावत कोई कसर बाकी नहीं रख रहे हैं। कांग्रेस ने आक्या की घेराबंदी में कोई कसर बाकी नहीं रख रखी है और कांग्रेसी यह मानकर चल रहे हैं कि राजवी और आक्या के बीच बंटने वाले भाजपा के परंपरागत वोटों का फायदा उन्हें मिलेगा। इससे इतर आक्या समर्थक कहते हैं कि हमारे लिए जाड़ावत कोई चुनौती ही नहीं हैं और राजवी की तो जमानत भी जब्त होनी है। कूकर आक्या का चुनाव चिह्न है और उनके समर्थक यह कहने से नहीं चूकते हैं कि अभी तो हमने सबकी हवा निकाल दी है।
भाजपा प्रदेशाध्यक्ष की प्रतिष्ठा का प्रश्न
बरहाल, चित्तौड़ के इस चुनावी द्वंद्व पर पूरे राजस्थान की नजर है। यहां का चुनाव भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष सीपी जोशी के लिए भी प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है, क्योंकि राजवी उन्हीं की पहल पर चित्तौड़ से उम्मीदवार बनाए गए हैं। जोशी और आक्या की राजनीतिक अदावत बहुत पुरानी है और यह माना जा रहा है कि अपने राजनीतिक वजन का फायदा लेते हुए जोशी ने आक्या से हिसाब बराबर कर लिया है।