November 24, 2024

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अजन्मे बच्चे और मां के हितों का ख्याल रखना भी अदालतों की एक ड्यूटी है

0

नई दिल्ली
सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को कहा कि अजन्मे बच्चे और मां के हितों का ख्याल रखना भी अदालतों की एक ड्यूटी है। इसके साथ ही सर्वोच्च अदालत ने 26 वर्षीय एक विधवा की उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें 32 सप्ताह के गर्भा को समाप्त करने की मांग की गई थी। पीड़ित महिला, जो मानसिक आघात और अवसाद के कारण गर्भावस्था को आगे नहीं बढ़ाना चाहती थी, की ओर से दायर याचिका को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को सही ठहराया। हाई कोर्ट ने इस मामले में पहले ही एम्स के डॉक्टरों का एक मेडिकल बोर्ड गठित कर जांच करवाई थी, जिसमें पाया गया था कि अजन्मा बच्चा सामान्य है। चिकित्सा विशेषज्ञों की राय के आधार पर हाई कोर्ट ने 23 जनवरी को महिला की याचिका खारिज कर दी थी। उसके बाद उस आदेश के खिलाफ महिला ने शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया था।

जस्टिस बेला एम त्रिवेदी की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा, “भ्रूण में कोई गड़बड़ी या असामान्यता नहीं है बल्कि बच्चा बिल्कुल सामान्य शरीर वाला है। इसलिए इस याचिका पर हम विचार नहीं कर सकते हैं।" इस पर याचिकाकर्ता के वकील राहुल शर्मा ने कहा, “हमें मां के बारे में सोचना चाहिए न कि अजन्मे भ्रूण के बारे में। वह एक विधवा है और वह इस सदमे के साथ जीना नहीं चाहती। यह गर्भावस्था उसकी पसंद और इच्छा के विरुद्ध है जो और अधिक आघात का कारण बनेगी।"

याचिकाकर्ता के वकील की दलीलों पर खंडपीठ के दूसरे जज जस्टिस प्रसन्ना बी वराले ने कहा, "हमें सिर्फ एक की नहीं बल्कि भ्रूण और मां दोनों की देखभाल करनी है।" यह कहते हुए उन्होंने याचिका खारिज कर दी। खंडपीठ ने पाया कि दिल्ली हाई कोर्ट पहले ही केंद्र या राज्य सरकार को निर्देश दे चुकी है कि अगर महिला  सरकारी अस्पताल में बच्चे को जन्म देने का विकल्प चुनती है तो उसके सभी चिकित्सा खर्च सरकार उठाएगी। केंद्र ने यह भी आश्वासन दिया कि यदि महिला बच्चे को गोद देने को इच्छुक है, तो इस संबंध में भी उसकी पूरी मदद की जाएगी।

कोर्ट ने कहा, “यह सिर्फ अगले दो हफ्ते का सवाल है। यहां तक कि सरकार भी बच्चे को गोद लेने को तैयार है, फिर हम हड़बड़ी नहीं कर सकते। मेडिकल बोर्ड का कहना है कि समय से पहले गर्भ हटाने से महिला की जान को खतरा हो सकता है। हम इसकी इजाजत नहीं दे सकते। इन सभी बिंदुओं पर हाई कोर्ट ने भी विचार किया है।” कोर्ट ने अपने आदेश में कहा,“याचिकाकर्ता की देखभाल केंद्र/राज्य सरकार द्वारा की जाएगी। याचिका खारिज की जाती है।”

बता दें कि इस मामले ने दो मौकों पर दिल्ली हाई कोर्ट  का ध्यान आकर्षित किया था। पहली बार 4 जनवरी को जब HC ने एम्स के मनोचिकित्सा विभाग में उसके मानसिक परीक्षण के बाद याचिकाकर्ता को गर्भपात की अनुमति दे दी थी, जिसमें पाया गया था कि महिला आत्महत्या के विचार के साथ गंभीर अवसाद से पीड़ित है। हालाँकि, 6 जनवरी को हाई कोर्ट को एम्स से एक चिट्ठी मिली, जिसमें दावा किया गया था कि गर्भपात कराने से बच्चा जीवित पैदा होगा और इस प्रसव से नवजात शिशु के शारीरिक और मानसिक रूप से विकलांग होने का खतरा होगा।

इसके बाद, केंद्र और एम्स ने 4 जनवरी के अदालती आदेश को वापस लेने के लिए एक आवेदन दायर किया जिसके कारण मुकदमेबाजी का एक और दौर शुरू हो गया। हाई कोर्ट ने यह जानने के लिए एम्स से एक और रिपोर्ट मांगी कि क्या याचिकाकर्ता अपनी मानसिक स्थिति को देखते हुए बच्चे को जन्म देने की स्थिति में होगी। तब हाई कोर्ट में डॉक्टरों को बुलाया गया था और अदालती कार्यवाही बंद कमरे में हुई थी।

इस सुनवाई के बाद हाई कोर्ट ने 4 जनवरी के अपने आदेश को वापस ले लिया और 23 जनवरी को कहा कि चूंकि मेडिकल बोर्ड की राय है कि भ्रूण में कोई गड़बड़ी के लक्षण नहीं हैं, इसलिए समय से पहले उसे नहीं गिराया जा सकता है। कोर्ट ने कहा, "इस मामले में असामान्यता, भ्रूण हत्या न तो उचित है और न ही नैतिक है।” इसके अलावा, बोर्ड ने राय दी थी कि समय से पहले प्रसव शुरू करने से दोनों की जान को खतरा हो सकता है। इसके अलावा याचिकाकर्ता की भविष्य की गर्भधारण क्षमता पर भी गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। हाई कोर्ट ने अपने आदेश में आगे कहा था, “यदि याचिकाकर्ता नवजात बच्चे को गोद देने के लिए इच्छुक है, तो जैसा कि एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी, ने सुझाव दिया है, यह भारत संघ सुनिश्चित करेगा कि गोद लेने की प्रक्रिया जल्द से जल्द और सुचारू रूप से हो जाय।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *