November 23, 2024

25 फरवरी को दिल्ली की जामा मस्जिद को मिलेगा नया शाही इमाम, जाने कैसे होती है ताजपोशी

0

नई दिल्ली

दिल्ली की ऐतिहासिक शाही जामा मस्जिद एक बार फिर बड़े बदलाव की गवाह बनने जा रही है। 25 फरवरी को जामा मस्जिद के शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी यहां के नायब इमाम और अपने बेटे सैयद उसामा शाबान बुखारी के नाम का ऐलान अपने जानशीन (उत्तराधिकारी) के रूप में घोषित करने वाले हैं। जामा मस्जिद के शाही इमाम ने इस बारे में ऐलान करते हुए बताया कि यह परंपरा रही है कि शाही इमाम अपने जीवनकाल में ही अपने उत्तराधिकारी का ऐलान करते हैं। इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए 25 फरवरी को नायब शाही इमाम शाबान बुखारी का नाम शाही इमाम के तौर पर घोषित करेंगे और इस मौके पर उनकी शाही इमाम के रूप में दस्तारबंदी की जाएगी।

दस्तारबंदी की इस रस्म के बाद शाबान बुखारी शाही इमाम के पद को संभालने के लिए तैयार हो जाएंगे। हालांकि इस रस्म के बाद भी सैयद अहमद बुखारी ही शाही इमाम के तौर पर अपनी जिम्मेदारियां निभाते रहेंगे लेकिन अगर आने वाले समय में उनको अपनी सेहत के चलते या किसी और वजह से इस जिम्मेदारी को निभाने में मुश्किलात आती हैं तो शाबान बुखारी सीधे तौर पर शाही इमाम की जिम्मेदारी निभाने के लिए आगे आएंगे। दस्तारबंदी की इस रस्म में शाही इमाम खुद अपने हाथों से नायब इमाम को शाही इमाम की पगड़ी बांधते हैं। इस तरह से आगे आने वाली वक्त में शाबान बुखारी के लिए जामा मस्जिद के चौदहवें शाही इमाम बनने का रास्ता बना दिया गया है।

जामा मस्जिद के जुड़े सूत्रों ने बताया कि इससे पहले शाबान बुखारी को साल 2014 में नायब इमाम बनाया गया था। नायब इमाम के तौर पर उनकी दस्तारबंदी के बाद से ही उनकी धर्म से जुड़े तमाम मामलों में देश और विदेश में ट्रेनिंग चल रही है। शाही इमाम बनने के सफर में जो नॉलेज जुटाने की जरूरत होती है उसको वो पूरी शिद्दत के साथ निभा रहे हैं।

कौन होते हैं शाही इमाम, कहां से आया यह शब्द?
भारत में शाही इमाम जैसा कोई पद नहीं है। यह ऐसा उपाधि है जिसपर बुखारी परिवार अपना हक जताता आया है। तबसे यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती आ रही है। 1650 के दशक में, जब मुगल बादशाह शाहजहां ने दिल्ली में जामा मस्जिद बनवाई थी, तब उन्होंने बुखारा (उज़्बेकिस्तान) के शासकों को एक इमाम की जरूरत बताई। इस तरह मौलाना अब्दुल गफूर शाह बुखारी को भेजा गया। शाहजहां ने उन्हें शाही इमाम का खिताब दिया। आसान भाषा में शाही इमाम शब्द का मतलब भी समझ लीजिए। शाही का मतलब होता है राजा और इमाम वो होते हैं जो मस्जिद में नमाज पढ़ाते हैं। इसलिए शाही इमाम का मतलब है राजा की ओर से नियुक्त किया गया इमाम।

उस समय से, मौलाना अब्दुल गफूर शाह बुखारी की संतान जामा मस्जिद के शाही इमाम के रूप में वंशानुगत तरीके से चलते आए हैं। मुगल शासन के खत्म होने के बाद, उन्होंने अपने आप को ही यह उपाधि दे दी है। भारत सरकार ने कभी भी इस पद को न तो बनाया है और न ही इसे स्वीकृति दी है। वर्तमान इमाम बुखारी खुद को शाही इमाम कहते हैं क्योंकि वो खुद को उसी रूप में देखते हैं, किसी कानूनी मान्यता के आधार पर नहीं। अब यह पद सैयद अहमद बुखारी अपने बेटे को 25 फरवरी को सौंप देंगे।

कैसे बदलता है शाही इमाम, अगला कौन बनेगा सब जानिए
शाही इमाम को मुस्लिम समुदाय में बहुत सम्मान दिया जाता है। जैसा कि पहले बताया कि शाही इमाम का पद वंशानुगत होता है, यानी पिता के बाद पुत्र यह पद संभालता है। इसलिए सैयद अहमद बुखारी अपने जीते जी इस पद को अपने बेटे सैयद उसामा शाबान बुखारी को सौंपेंगे। शाही इमाम का पद सौंपते वक्त नियम है कि पिता जिंदा रहते ही अपने बेटे को यह पद का उत्तराधिकारी बना सकता है। शाही इमाम ने राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर भी अपनी आवाज उठाई है। यह पद भारतीय मुस्लिम समुदाय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

राजनीति में भी दखल देता है बुखारी परिवार
जामा मस्जिद के शाही इमाम बनते ही पिछले 400 सालों से अबतक इस पद पर सिर्फ और सिर्फ बुखारी परिवार की ही हुकुमूत चली है। इस इमामत को किसी ने चुनौती नहीं दी। यही वजह रही कि इस पद का कोई आधिकारिक आधार न हो लेकिन देश की राजनीति में बुखारी परिवार भी हिस्सा लेता है। सैयद अहमद बुखारी के पिता अब्दुल्ला बुखारी अलग-अलग मुस्लिम दलों को अपना समर्थन दे चुके हैं। सैयग अहमद बुखारी के पिता ने 1977 में जनता पार्टी और 1980 में कांग्रेस को भी समर्थन दिया था। दिखाया था कि सियासत में हम भी पैठ बना सकते हैं। उसके बाद से देश की अलग-अलग पार्टियां शाही इमाम का समर्थन लेने जामा मास्जिद के दर पर आने लगीं। इनमें पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ ही सोनिया गांधी का भी नाम शामिल है। 2004 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई को भी शाही इमाम के समर्थन की जरूरत पड़ी थी। तब बुखारी ने मुसलमानों से भाजपा को समर्थन देने की अपील की थी।

 

क्या होती है दस्तारबंदी?
दस्तारबंदी कुछ मुस्लिम समुदायों, खासकर दक्षिण एशिया के मुसलमानों जैसे भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और धार्मिक समारोह है। शब्द "दस्तारबंदी" फारसी भाषा से आया है, जहां दस्तार का अर्थ पगड़ी और बंदी का अर्थ बांधना होता है। इसलिए, दस्तारबंदी का सीधा अर्थ पगड़ी बांधने का कार्य होता है। यह समारोह आमतौर पर एक युवा लड़के के वयस्क होने में प्रवेश का प्रतीक होता है या किसी ऐसे व्यक्ति को सम्मानित करने के लिए किया जाता है जिसने धार्मिक या शैक्षणिक अध्ययन में कोई उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल की हो। दस्तारबंदी के सबसे आम अवसरों में से एक है जब कोई छात्र कुरान को पूरा याद कर लेता है, जिसे हिफ्ज़ के नाम से जाना जाता है। यह इस्लामी धर्म में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है, और दस्तारबंदी समारोह सार्वजनिक रूप से इस उपलब्धि को स्वीकार करने और उसका जश्न मनाने का एक तरीका है।

 

दस्तारबंदी समारोह के दौरान, एक सम्मानित बुजुर्ग या धार्मिक विद्वान आम तौर पर व्यक्ति के सिर पर पगड़ी बांधते हैं, साथ ही साथ प्रार्थनाएं करते हैं और आशीर्वाद देते हैं। पगड़ी अक्सर बढ़िया कपड़े से बनी होती है और इस पर जटिल डिजाइन या कढ़ाई हो सकती है। पगड़ी बांधने का कार्य प्रतीकात्मक है, यह व्यक्ति को सम्मान, गरिमा और जिम्मेदारी देने का प्रतिनिधित्व करता है। इस समारोह के बाद आम तौर पर परिवार, दोस्तों और समुदाय के सदस्यों का जमावड़ा होता है जो भोज और उत्सव के साथ इस अवसर को मनाने के लिए एक साथ आते हैं। यह परिवार के लिए खुशी और गर्व का समय होता है और यह व्यक्ति की उपलब्धियों और समुदाय में अधिक जिम्मेदारियां लेने के लिए उनकी तत्परता की सार्वजनिक स्वीकृति के रूप में कार्य करता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *