November 24, 2024

काराकाट-बिहार में कुशवाहा की हार का कारण पवन सिंह या भाजपा? जीत के जश्न में दामन पर लगा दाग

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काराकाट.

बिहार की काराकाट लोकसभा क्षेत्र से निर्दलीय उतरे भोजपुरी अभिनेता पवन सिंह ने अपना काम कर दिया। वह जीतेंगे नहीं, यह राजनीति के गहरे जानकारों को पहले से पता था। यह भी पता था कि वह भाकपा माले- लिबरेशन के प्रत्याशी राजाराम सिंह को ही फायदा पहुंचाएंगे। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के कोटे से महज एक लोकसभा टिकट पाकर संतोष करने वाले राष्ट्रीय लोक मोर्चा के प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा को ही नुकसान पहुंचाएंगे, यह भी पता था। इतना कुछ राजनीति के गहरे जानकारों को पता था तो राजनीति में नए-नए उतरे पवन सिंह को किसी ने यह बताया नहीं होगा?

क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ भारतीय जनता पार्टी की पहली सूची में आसनसोल से प्रत्याशी बनाए जाने के बाद इसे ठुकराने वाले पवन सिंह को भाजपा के दिग्गजों ने समझाया नहीं होगा? अगर आप इन सवालों के जवाब में जाएंगे तो बिहार की 40 में से इस एक सीट को पहले ही गंवाने की भाजपा की तैयारी शायद मान जाएंगे।

उपेंद्र कुशवाहा के कॅरियर पर ग्रहण क्यों
बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार फैक्टर के कारण भाजपा को बहुत कुछ करना पड़ा है। बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में जब चिराग पासवान ने सीएम नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाईटेड को हराने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाया, तब उसके बाद दिवंगत रामविलास पासवान के बेटे को भाजपा ने क्या दिन दिखाया- किसी से छिपा नहीं है। उपेंद्र कुशवाहा पिछले साल जदयू में थे, वहां से बहुत हील-हुज्जत के बाद निकले और कुछ अंतराल के बाद एनडीए में वापस आए। वह एनडीए सरकार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ 2019 के पहले राज्यमंत्री रह चुके थे। लोकसभा चुनाव 2019 के पहले मंत्रीपद से ठीक उसी तरह इस्तीफा देकर निकल आए थे, जैसे पशुपति कुमार पारस इस बार। बस, अंतर यही था कि थोड़ा समय रहते ही कुशवाहा निकल आए थे। वह बात पुरानी हो गई, लेकिन अब काराकाट लोकसभा चुनाव परिणाम में जो सामने आया- यह याद आना ही था। चाणक्या स्कूल ऑफ पॉलिटिकल राइट्स एंड रिसर्च के अध्यक्ष सुनील कुमार सिन्हा इसके साथ ही यह भी जोड़ते हैं- "यह याद दिलाना भी जरूरी है कि भाजपा के पास 'कुशवाहा' के रूप में सम्राट चौधरी हैं, जिन्हें पार्टी ने दूसरे दल से प्रवेश कराने के कुछ समय बाद ही बहुत कुछ दे दिया। मतलब, कुशवाहा जाति के प्रतिनिधित्व का संकट भाजपा में नहीं है।"

भाजपा की सीटों पर क्यों नहीं उतरे, यह देखें
क्या खुद जान-बूझ कर एनडीए की यह सीट गंवाई गई? इस सवाल का जवाब जानने के लिए पवन सिंह की उम्मीदवारी से जुड़े पूरे प्रकरण को याद करना होगा। पवन सिंह ने आसनसाेल से टिकट मिलने पर तृणमूल के शत्रुघ्न सिन्हा के खिलाफ उतरने से मना कर दिया। उसके बाद भोजपुर क्षेत्र से टिकट के लिए प्रयास किया। भाजपा ने आरा और बक्सर की सीट नहीं दी तो काराकाट चले गए। काराकाट में भाजपा के सहयोगी उपेंद्र कुशवाहा पहले से तय थे। फिर भी पवन वहां गए। अंतिम समय तक पवन सिंह टिके रहे तो भाजपा ने उन्हें पार्टी से मुक्त करने की औपचारिकता की। लेकिन, तब तक अपने प्रचार में भाजपाई होने का जितना फायदा उन्हें लेना था- ले चुके थे। हालांकि, वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक प्रवीण बागी कहते हैं कि "उपेंद्र कुशवाहा को हराने नहीं, बल्कि खुद जीतने के आत्मविश्वास में पवन सिंह वहां गए। उन्हें लगा कि दो कुशवाहा की लड़ाई में वह अपनी राजपूत जाति समेत सामान्य वोटरों का साथ हासिल कर लेंगे। लेकिन, यह नहीं हुआ। उन्होंने उपेंद्र कुशवाहा के वोट को ही काटकर जो हासिल करना था, किया। जीत नहीं सके और उपेंद्र कुशवाहा की हार का कारण भी बन गए।"

महागठबंधन में रहते जितना वोट ले आए, वह भी नहीं आया
2019 में यहां जनता दल यूनाईटेड के महाबली सिंह जीते थे। मतलब, इस बार जदयू ने समन्वय के तहत अपनी यह सीट उपेंद्र कुशवाहा के लिए छोड़ी थी। पिछली बार यहां राजग प्रत्याशी महाबली सिंह को करीब चार लाख वोट मिले थे। तब महागठबंधन प्रत्याशी उपेंद्र कुशवाहा को 3.13 लाख वोट मिले थे। इस बार राजग के लिए उपेंद्र कुशवाहा ने पहले छह चरणों में लगभग हर सीट पर चुनाव प्रचार किया और अपनी सीट को लेकर आश्वस्त भी नजर आए। उन्हें लग रहा था कि महागठबंधन प्रत्याशी के रूप में जब 3.13 लाख वोट आ सकते हैं तो राजग प्रत्याशी के रूप में जदयू को पिछली बार मिला वोट तो आएगा ही। यह हो नहीं सका। इस फेर में कुशवाहा बुरी तरह पिछड़ गए।

दाग छुड़ाएगी भाजपा या पिंड छुड़ाएगी
राष्ट्रीय लोक मोर्चा के प्रमुख और काराकाट के एनडीए प्रत्याशी उपेंद्र कुशवाहा की करारी शिकस्त के बाद यह सवाल उठना लाजिमी है कि भाजपा पवन सिंह को नियंत्रित नहीं कर सकी तो क्या अब इस हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए उनके लिए कुछ करेगी? वैसे, नैतिक जिम्मेदारी का जहां तक सवाल है तो भाजपा के अपने प्रत्याशी भी सीट नहीं बचा सके। 2019 में 100 प्रतिशत सीटों पर जीत दर्ज करने वाली भाजपा इस बार बिहार में औंधे मुंह गिरी हुई दिख रही है। उससे ज्यादा जदयू का परफॉर्मेंस बेहतर है। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि क्या नीतीश कुमार इस प्रदर्शन को भुनाने के लिए दूसरे खेमे में तो नहीं चले जाएंगे? इस सवाल के जवाब में सुनील कुमार सिन्हा कहते हैं- "अगर ऐसा हुआ तो बहुत कुछ बदल जाएगा, लेकिन नहीं हुआ और भाजपा के नेतृत्व में राजग ने केंद्र में स्थिर सरकार बनाई तो उसे उपेंद्र कुशवाहा के लिए कुछ अलग करना चाहिए। कुशवाहा के ईमानदार प्रयास और एक सीट मिलने पर भी चुप्पी साधने का बलिदान व्यर्थ जाएगा तो उसका गलत मैसेज चिराग पासवान प्रकरण की तरह ही जाएगा। भाजपा कुशवाहा को सम्मान देना चाहे तो लोकसभा सांसद बने विवेक ठाकुर की जगह उन्हें राज्यसभा में प्रवेश दे सकती है।"

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