September 30, 2024

CPEC के चलते जिगरी दोस्त पाक और चीन में बिगड़ रहे रिश्ते!

0

काबुल
चीन रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (CPEC) को अफगानिस्तान तक ले जाना चाहता है। लेकिन उसकी इस योजना में सबसे बड़ी बाधा खुद पाकिस्तान बना हुआ है। जियो-पॉलिटिक की रिपोर्ट के अनुसार, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने संकल्प लिया था कि वे सभी परेशानियों को दूर कर CPEC का काम आगे बढ़ाएंगे। लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। पाकिस्तान के पास पैसा नहीं है। CPEC परियोजना लंबे समय से रुकी हुई है। पाकिस्तान की व्यवस्थाओं से चीन नाराज है जिसके कारण चीन के लिए, अफगानिस्तान में अपनी मल्टी-बिलियन परियोजना का विस्तार करने में देरी हो रही है।

चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) में आ रही समस्याओं के बीच, कई पाकिस्तानी सोशल मीडिया हैंडल ने यह दिखाने के प्रयास में एक बड़े पैमाने पर गलत सूचना अभियान शुरू किया है कि बीजिंग की अरबों-डॉलर की परियोजना से पाकिस्तान में लोगों का जीवन रातोंरात बदल जाएगा। इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म रिपोर्टिका के अनुसार, दक्षिण-एशियाई देश की संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था और पाकिस्तान में चीनी नागरिकों पर घातक हमलों जैसे कई कारणों से पाकिस्तान में चीन का निवेश पहले से ही विफल होने का खतरा है।

हालांकि चीन की नजरें अफगानिस्तान के बेशुमार खनिजों पर है जो अभी भी छिपे हुए हैं। इसी के लिए चीन पाकिस्तान से होते हुए अपनी परियोजना को अफगानिस्तान तक ले जाना चाहता है। चीन को CPEC का विस्तार अगर अफगानिस्तान तक करना है तो उसे पहले पाकिस्तान में मौजूद सुरक्षा समस्याओं को सुधारना होगा क्योंकि तालिबान शासित अफगान उसके वैसे भी टेढ़ी खीर साबित होने वाला है। अफगानिस्तान में बुनियादी ढांचा कमजोर है। तालिबान शासन का विरोध करने वाले इस्लामी समूहों से भी बड़ा खतरा है।

जियोपॉलिटिक ने दक्षिण एशियाई अध्ययन संस्थान, सिंगापुर के राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में एक शोध विश्लेषक क्लाउडिया चिया यी एन का हवाला देते हुए कहा, "तालिबान को शुरू में चीनी निवेश की ज्यादा उम्मीदें थीं, लेकिन यह साकार नहीं हुईं। चीन फिलहाल अफगानिस्तान में निवेश करने के लिए अनिच्छुक है और इस पर आगे संदेह बना हुआ है। चीन के विरोध के बाद तालिबान ने तुर्किस्तान इस्लामिक पार्टी के साथ संबंध तोड़ने की प्रतिबद्धता जताई है, लेकिन चीन को इस पर भी संदेह है। तुर्किस्तान इस्लामिक पार्टी को पहले ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट के नाम से जाना जाता था।"

रिपोर्ट में अफगानिस्तान के चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इनवेस्टमेंट के उपाध्यक्ष खान जान आलोकोजे का भी हवाला दिया गया। वे मानते हैं कि बीजिंग की सबसे बड़ी चिंता एक असंगठित कबायली क्षेत्र का इस्तेमाल है जो इस्लामिक आतंकवादियों को प्रशिक्षण देने के लिए अफगानिस्तान-पाकिस्तान में फैला हुआ है। अफगानिस्तान को अपना तेल बेचने में रूस के सामने भी यही समस्या है, क्योंकि वह यूक्रेन संकट के बाद प्रतिबंधों से निपटने की कोशिश कर रहा है।

भले ही दोनों देशों के बीच एक अस्थायी व्यापार समझौता मौजूद है, लेकिन रूस द्वारा तालिबान को मान्यता देने की बहुत कम संभावना है। इसका सबसे स्पष्ट संकेत तब देखा गया जब तालिबान को समरकंद, उज्बेकिस्तान में सितंबर 2022 शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शिखर सम्मेलन से बाहर रखा गया था।

क्लाउडिया ने आगे कहा, "क्या अफगानिस्तान एससीओ में अपनी पर्यवेक्षक की स्थिति को बरकरार रख पाएगा, यह भी भी एक सवाल है। क्योंकि अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने तालिबान को अफगानिस्तान की वैध सरकार के रूप में मान्यता नहीं दी है।" चीन और रूस दोनों ही अफगानिस्तान की धरती से अमेरिका के बाहर निकलने से पैदा हुए खालीपन को भरना चाहते हैं। जहां रूस एक मौजूदा व्यापार भागीदार है, वहीं चीन बेशुमार अफगान संसाधनों का पता लगाने का इच्छुक है। लेकिन, दोनों देशों में से किसी ने भी तालिबान शासन को मान्यता देने या राजनयिक संबंधों को बनाए रखने की इच्छा नहीं दिखाई है।

रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को भी इस क्षेत्र में आतंकी खतरे की चिंता है। उन्होंने आतंकवादियों के पड़ोसी देशों में घुसकर आतंकी गतिविधियों की साजिश रचने पर अपनी चेतावनी व्यक्त की है। तथाकथित इस्लामिक स्टेट (IS) ने कथित तौर पर अपने रूस विरोधी प्रचार को और बढ़ा दिया है। जियो-पॉलिटिक ने बताया कि उन्होंने रूस को एक 'धर्मयुद्ध सरकार' और 'इस्लाम के दुश्मन' के रूप में बताया है और सक्रिय रूप से अपने समर्थकों को रूस के खिलाफ उकसा रहा है।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *