November 25, 2024

छत्तीसगढिया सांस्कृतिक जागरूकता ,लोक पर्व छेर-छेरा एवं पुन्नी मना रहे हैं श्रमिक

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कोण्डागांव

जिले के जनपद पंचायत फरसगांव अंतर्गत ग्राम पंचायत बड़ेडोंगर में चल रहे मनरेगा कार्य समुदाय के लिए परती भूमि का विकास कार्य में संलग्न मनरेगा मजदूरों के द्वारा छेरिक-छेरा पर्व मनाया गया, जो छत्तीसगढ़ की संस्कृति का एक प्रतीक है। यह उत्सव कृषि प्रधान संस्कृति में दानशीलता की परंपरा को याद दिलाता है उत्साह एवं उमंग से जुड़ा छत्तीसगढ़ का मानस लोकपर्व के माध्यम से सामाजिक समरसता को सुदृढ़ करने के लिए आदिकाल से संकल्पित रहा है इस दौरान लोग घर-घर जाकर अन्न का दान मांगते हैं।  

गांव के युवक घर-घर जाकर डंडा नृत्य करते हैं लोक परंपरा के अनुसार पौष महीने की पूर्णिमा को प्रतिवर्ष छेरछेरा का त्यौहार मनाया जाता है इस दिन सुबह से ही बच्च,े युवक व युवतियां हाथ में टोकरी, बोरी आदि लेकर घर-घर छेरछेरा मनाते हैं। वहीं युवाओं की टोली डंडा नृत्य कर घर-घर पहुंचती है धान मिसाई खत्म हो जाने के चलते गांव में घर-घर धान का भंडार होता है जिसके चलते लोग छेरछेरा मनाने वालों को दान करते है। इस त्यौहार को 10 दिन पहले ही डंडा नृत्य करने वाले लोग आसपास के गांव में नृत्य करने जाते हैं वहां उन्हे बड़ी मात्रा में धान व रूपए उपहार के रुप में मिलता है। इस दिन प्राय: काम-काज बंद रहता है लोग गांव से बाहर नहीं जाते हैं। अन्नपूर्णा देवी तथा मां शाकंभरी देवी की पूजा की जाती है ऐसा माना जाता है कि जो भी बच्चों तथा युवक-युवतियों को अन्नदान करते हैं वह मोक्ष प्राप्त करते हैं। इस दिन मुर्रा-लाई और तिल के लड्डू समेत कई सामग्रियों की जमकर बिक्री होती है इस दिन सारे घरों में आलू चाप भजिया वह अन्य व्यंजन बनाए जाते हैं। इसके अलावा छेरछेरा के दिन कई लोग खीर-खिचड़ी का भंडारा रखते हैं जिसमें हजारों लोग प्रसाद ग्रहण करते हैं।

इस पर्व के संबंध में पौराणिक मान्यता के अनुसार खेतों में काम करने वाले मजदूर कड़ी मेहनत करते हैं फसल तैयार होता है तो खेत का मालिक उस पर अपना मालिकाना हक रखता है मजदूरों को इसके लिए थोड़ी बहुत मजदूरी दी जाती है इसके अलावा उन्हें कुछ नहीं मिलता है। इसलिए मजदूर धरती मां से प्रार्थना करते हैं। मजदूरों की प्रार्थना सुनकर धरती मां किसान को स्वप्न में दर्शन देकर कहती है कि फसल में से मजदूरों को भी कुछ हिस्सा दान में देने पर देवता की बरकत होगी इसके बाद जब फसल तैयार हुआ तो किसानों ने मजदूरों को फसल में से कुछ हिस्सा देना शुरू किया। कालांतर में धान का दान देने की परंपरा बन गई है जो आज भी ग्रामीण इलाकों में छेर-छेरा पर्व के रूप में इस परंपरा का पालन श्रद्धा भाव से किया जाता है। छत्तीसगढ़ का यह पर्व ना केवल संस्कृति बल्कि धार्मिक महत्व का भी पर्व है।

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