जोशीमठ संकट में क्यों; क्या है इसका समाधान? वैज्ञानिकों ने बताया पूरा प्लान
नई दिल्ली
पहाड़ों पर भूस्खलन अथवा भू-धंसाव की घटनाएं बढ़ रही हैं। पहाड़ एवलांच, मूसलाधार बारिश, तापमान बढ़ने का दुष्प्रभाव, ग्लेशियर पिघलने, ग्लेशियर झील फटने, जलवायु परिवर्तन, जंगलों में आग जैसे खतरों से जूझ रहे हैं। इसके अलावा अनियोजित और अवैज्ञानिक निर्माण की वजह से पहाड़ के कुछ इलाकों का अस्तित्व खतरे में आ चुका है। निचले हिमालयी क्षेत्रों में रहने वाली आबादी भी इन खतरों का कई बार सामना बार-बार कर रही है, लेकिन वैज्ञानिकों का मत है कि ग्लेशियर के मलबे पर बसे पांच हजार फीट से ज्यादा ऊंचाई वाले इलाकों पर यह खतरा अधिक है। जोशीमठ जैसी घटना इसी का नतीजा है, इससे सबक लेना होगा।
संकट क्यों?
वैज्ञानिकों का मानना है कि हिमालय में निरंतर भूगर्भीय हलचल हो रही हैं। यह अभी निर्माण की अवस्था में है। हिमालय अभी काफी युवा और बदलाव की ओर अग्रसर है। बढ़ते मानवीय दखल एवं पर्यावरणीय बदलावों से हिमालय की सेहत और संरचना पर असर पड़ा है। वाडिया के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. विक्रम गुप्ता के मुताबिक, उच्च हिमालय के अधिकांश क्षेत्र मलबे के ढेर पर बसे हैं। यही मलबा सैकड़ों, हजारों साल बाद एक ठोस सतह में बदल चुका है। पहले इसमें खेती हुई और धीरे-धीरे आबादी बसनी शुरू हुई। इस मलबे के भार वहन करने की एक क्षमता है। लगातार बढ़ती आबादी इन क्षेत्रों पर अतिरिक्त दबाव बना रही है। पहाड़ में निर्माण करने की सीमा तय होनी चाहिए। पहाड़ों में यूं भी बीते कुछ दशकों में तमाम तरह के बड़े निर्माण हुए हैं। सड़क निर्माण में चट्टानों की कटिंग, बड़ी-बड़ी बांध परियोजनाओं के निर्माण में मिट्टी का कटाव एक बदलाव ही है, जो नए भूस्खलन क्षेत्र पैदा कर सकता है।
उत्तराखंड में इस वक्त 84 भूस्खलन के डेंजर जोन चिह्नित किए जा चुके हैं। वैज्ञानिक डॉ. अनिल कुमार के अनुसार, बाढ़ की वजह से तबाही की घटनाएं 39 हजार साल और 15 हजार साल पहले से हो रही हैं। ग्लेशियर झील के फटने और तेज बारिश की वजह से भी निचले इलाकों में भारी भूस्खलन, भू-कटाव हुआ है। एक अध्ययन में 1820 से वर्ष 2000 के बीच हिमालयी क्षेत्र में कुल 180 वर्षों में बाढ़ की 64 घटनाएं दर्ज गईं।
क्या है समाधान
बड़े पैमाने पर वनीकरण, पेड़ों के कटान पर रोक, पहाड़ की कटिंग और बड़े निर्माण पर रोक, किसी भी तरह के निर्माण पर वैज्ञानिक सलाह जरूरी, आबादी का दबाव एक ही जगह से शिफ्ट हो, नदी तट पर अतिक्रमण नहीं हो, ढलान वाले नालों से आबादी को दूर रखा जाए, भूस्खलन संभावित जोन चिह्नित कर ट्रीटमेंट शुरू हो। रिटेनिंग वॉल के कार्य हों। भूस्खलन से कमजोर हुई संरचनाओं को मजबूती दी जाए और जलनिकासी की उचित व्यवस्था की जाए। भूस्खलन क्षेत्र से आबादी को विस्थापित किया जाए।
जोशीमठ की मॉनिटरिंग बेहद जरूरी:डॉ. डोभाल
वाडिया के रिटायर वैज्ञानिक डॉ. डीपी डोभाल के मुताबिक, हिमालयी क्षेत्र में जोशीमठ समेत पांच हजार फीट से ऊपर के सभी इलाके ग्लेशियर के मलबे पर टिके शहर हैं। जोशीमठ अधिक ढलान पर बसा है। जनसंख्या का दबाव अधिक है और भवनों की तादाद भी काफी है। पानी की निकासी सही नहीं है। ऊपर औली क्षेत्र में जमकर बर्फबारी होती है, जिसका सीधा ढलान जोशीमठ की तरफ है। जहां तक सुरंग से प्रभाव की बात है तो सुरंग की वजह से कहीं न कहीं प्रभाव तो पड़ ही रहा होगा। फिलहाल मौजूदा स्थिति में मॉनिटरिंग और उसके अनुरुप कार्ययोजना ही बचाव का विकल्प है। जोशीमठ में जितनी दरारें आई हैं, उनकी मॉनिटरिंग होनी चाहिए, वह कितनी तेजी से चौड़ी हो रही हैं, उससे खतरे का अंदाजा लग सकता है। पानी के स्रोत देखे जाएं। कहीं पंचर जैसी स्थिति तो नहीं, सुरंग में जहां पानी निकल रहा था, उसमें भी अब कमी देखी गई है। कहीं यह पानी दूसरी ओर डायवर्ट तो नहीं हो गया। मूवमेंट तेज है तो खतरा भी ज्यादा है।