September 28, 2024

अर्जुन कपूर और तब्बू की फिल्म का नाम ‘कुत्ते’, कहानी में वफादारी नदारद

0

ओमकारा, मकबूल और हैदर फिल्मों का निर्देशन कर चुके विशाल भारद्वाज के बेटे आसमान भारद्वाज की बतौर निर्देशक पहली फिल्म ‘कुत्ते’ इस साल सिनेमाघरों में रिलीज होने वाली पहली बड़ी फिल्म है। कहानी शुरू होती है साल 2003 से जहां नक्सल लक्ष्मी (कोंकणा सेन शर्मा) को पुलिस वालों ने पकड़ रखा है। लक्ष्मी की नक्सलियों की टोली आकर उसे वहां से छुड़ा ले जाती है। वहां से कहानी 13 साल आगे बढ़ती है। पुलिस अफसर गोपाल (अर्जुन कपूर) और पाजी (कुमुद मिश्रा) डिपार्टमेंट में रहते हुए भी ड्रग्स के धंधे में लिप्त हैं। ड्रग माफिया नारायण खोबरे उर्फ भाऊ (नसीरुद्दीन शाह) इस धंधे में अपने प्रतिद्वंदी को मारने के लिए दोनों को भेजता है। भाऊ के प्रतिद्वंदी को मारने के बाद गोपाल और पाजी ड्रग्स के साथ पकड़े जाते हैं। दोनों को सस्पेंड कर दिया जाता है। सीनियर पुलिस अफसर पम्मी (तब्बू) दोनों से कहती है कि नौकरी पर लौटने के लिए दोनों को एक-एक करोड़ रुपये देने होंगे, तब वह कुछ सेटिंग कर पाएगी। पैसों से भरी बैंक की वैन को लूटने का प्लान गोपाल, पाजी और पम्मी अपने-अपने तरीके से बनाते हैं। क्या वह वैन लूट पाएंगे, कहानी इस पर आगे बढ़ती है। भले ही फिल्म की अवधि दो घंटे से कम है, उसके बावजूद धीमी गति से चलने की वजह से फिल्म एक समय के बाद उबाऊ लगने लगती है। बार-बार नजर घड़ी पर जाती है कि इंटरवल कब होगा, इस उम्मीद के साथ की शायद इंटरवल के बाद कहानी में थोड़ी रफ्तार आएगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता है। कहानी और उलझती जाती है। फिल्म के कलाकार जो कर रहे हैं, वह क्यों कर रहे हैं, उसका औचित्य समझ नहीं आता है। इसमें उनकी गलती भी नहीं, क्योंकि आसमान और विशाल भारद्वाज की लिखी कहानी कमजोर है। कहानी किसी के भी निजी जीवन में नहीं जाती है। यह काम फिल्म के लेखकों ने दर्शकों पर छोड़ दिया है कि वह समझ जाएंगे। पहली फिल्म के मुताबिक आसमान की कोशिश निर्देशन में अच्छी है। उन्होंने जिम्मेदार निर्देशक की तरह हर फ्रेम, साउंड, कैमरा एंगल तक हर चीज पर बारिकी से काम किया है। बंदूकें चलाते स्वैग से भरपूर सितारे, तेज बैकग्राउंड स्कोर के बीच में बजता कमीने फिल्म का गाना ढैन टेणां… इसे एक स्टाइलिश फिल्म बनाता है, लेकिन कमजोर कहानी की वजह से फिल्म बिखर जाती है। आसमान के निर्देशन में विशाल की झलक दिखती है। अर्जुन कपूर एंटी हीरो की भूमिका में सहज लगते हैं, यह उनका कंफर्ट जानर भी है। तब्बू के कुछ संवाद हंसाते हैं, लेकिन फिर वह किसी नतीजे तक नहीं पहुंचते हैं। नसीरुद्दीन शाह ड्रग माफिया के नकारात्मक भूमिका में याद रह जाते हैं। कुमुद मिश्रा अपने रोल में जंचते हैं। राधिका मदान के हिस्से कुछ खास सीन्स नहीं आए हैं। कोंकणा सेन शर्मा को नक्सली क्यों बनाया गया, उसका कोई जिक्र नहीं है, इसलिए उनका किरदार दिशाहीन लगता है। फरहाद अहमद देहिवि की सिनेमैटोग्राफी की तारीफ करनी होगी, क्योंकि रात में शूट हुई इस फिल्म को वह कहीं से भी अंधेरे में खोने नहीं देते हैं। फिल्म का शीर्षक समझ नहीं आता, क्योंकि इसमें कोई भी पात्र किसी से वफादारी करता नहीं दिखता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *