आपस में लडने का नुकसान शत्रु से अधिक होता है: शंभूशरण लाटा
रायपुर
आपस में लडने से नुकसान अपना ही होता है फिर बाहरी शत्रु की आवश्यकता ही नहीं होती। खलभूषण राक्षसों के साथ भगवान श्रीराम के युद्ध प्रसंग पर संतश्री शंभूशरण लाटा ने कहा कि पहले तो राक्षस भगवान के स्वरुप को देखकर युद्ध करने राजी नहीं थे लेकिन जब भगवान ने युद्ध करने कहा तो वे मरते नहीं थे, ऐसे समय में भगवान ने राक्षसों को भी अपना रुप दे दिया और वे आपस में ही लड़-लड़कर मरने लगे क्योंकि उन्हें यह वारदान मिला था कि वे मरेंगे तो आपस में लड़कर ही। आपस में लडने से अपना ही नुकसान होता है, उसके लिए किसी बाहरी शत्रु की आवश्यकता नहीं होती। आपस के ही लोग इतना नुकसान पहुंचाते हैं जितना की बाहरी नहीं पहुंचाते। बुरी नारी के संग होने से व्यक्ति नष्ट हो जाता है और राजा को गलत सलाहकार मिलने से राजा नष्ट हो जाता है।
उन्होंने कहा कि मनुष्य को मान से हमेशा बचे रहना चाहिए, मान आने से ज्ञान नष्ट हो जाता है। मान व्यक्ति को बेईमान बना देता है और फिर यही मनुष्य के पतन का कारण बन जाता है। मान आया तो समझो अभिमान आया, और अभिमान आया तो ज्ञान चले गया। संसार में आज यही स्थिति है, लोग अभिमानी होते जा रहे है और उनका ज्ञान नष्ट होते जा रहा है। ज्ञान नष्ट होने से घर की शांति नष्ट हो रही है इसका मूल कारण में मदिरा का सेवन है। जब महिलाएं भी मदिरा का सेवन करने लगे तो फिर धर्म और धन की रक्षा कैसे होगी। धर्म को बचाना मुश्किल हो गया है। जो राजा नीति नहीं जानता उसका राज्य नष्ट हो जाता है। धन चाहते है तो धर्म करना सीखो, धर्म करने से धन बढ़ता है और उससे समृद्धि आती है। धन की रक्षा दान और धर्म से ही हो सकती है, इसके अलावा और कोई दूसरा विकल्प नहीं हो सकता। धन की तीन गति है दान – धन कमाया है तो दान करो, उसका भोग करो और यदि यह दोनों नहीं हो सका तो धन का नाश निश्चित है। धन की शुद्धि और वृद्धि के लिए दान और धर्म का करना आवश्यक है।
शंभूशरण लाटा ने कहा कि राजा बनना है तो तपस्या करो, मुक्ति चाहिए तो भगवान का भजन करो, अपने सभी प्रकार के कर्म भगवान के चरणों में समर्पित करो, कभी भी शत्रु और रोग को छोटा नहीं समझना चाहिए। जब यह अपना रुप लेते है तो इससे केवल हानि ही होती है। जो यह कहते हैं कि उन्हें रात को नींद नहीं आती और वे सोचते रहते हैं, सोचना और तनाव केवल चेहरे पर झलकना चाहिए उसे चित के अंदर मत ले जाओ। वह चित का विषय नहीं है। भगवान श्रीराम ने सीताजी का हरण होने पर जो चिंता दिखाई वह चिंता केवल चेहरे पर थी, चित में नहीं, चित से वे आनंदित थे। चिंता चित का विषय नहीं है, वह केवल चेहरे पर दिखाने के लिए है, यदि चित से आनंद चले गया तो शांति चली जाती है। यदि चित में चिंता नहीं है तो आदमी को नींद आएगी ही आएगी।
मारीच के सामने रावण के अभिवादन प्रसंग पर उन्होंने कहा कि यदि नीच व्यक्ति झूक रहा है और आपका अभिवादन और सम्मान कर रहा है तो समझ जाना चाहिए कि वह आपका भला कतई नहीं चाहता, वह अपना स्वार्थ सिद्ध करने आया है। रावण मनुष्य को पशु बना देता है और भगवान श्रीराम पशुओं को मनुष्य बना देते हैं। हम जगत को ही ठीक से समझ नहीं पाते जो जगतपति को कैसे समझेंगे, जब जगतपति समझ में आ जाएगा तो जग भी समझ में आ जाएगा। जिस दिन जगतपति को स्वीकार कर लेंगे जग स्वमेव आपके समझ में आने लगेगा लेकिन यह इतना आसान नहीं है। मनुष्य को अपनी बुद्धि और कल का प्रयोग समयानुसार और परिस्थितियों को देखते हुए करना चाहिए, केवल पढ़ाई करने से कुछ नहीं होता। पढ़ाई से केवल ज्ञान प्राप्त होता है लेकिन उस ज्ञान का प्रयोग कहां और कैसे करना है यह आवश्यक है कि इसका प्रयोग भी हम जाने।