KHAM फॉर्मूले से कांग्रेस को गुजरात में सबसे बड़ी जीत, साइडइफेक्ट से उभरी थी BJP; दिलचस्प है कहानी
नई दिल्ली
गुजरात विधानसभा चुनाव में इस बार किसकी जीत होगी और किसकी हार। भाजपा 27 सालों के शासन को बरकरार रख पाएगी या 'गुपचुप फॉर्मुले' से कांग्रेस तीन दशक बाद सरकारी में वापसी करेगी? कहीं ऐसा तो नहीं कि आम आदमी पार्टी (आप) दोनों दलों का खेल बिगाड़ देगी? ऐसे तमाम सवालों के जवाब 8 दिसंबर को काउंटिंग के बाद ही मिल पाएगा। फिलहाल आपको ले चलते हैं गुजरात की राजनीति में तीन दशक पीछे। जब कांग्रेस ने यहां सबसे बड़ी जीत हासिल की थी। 149 सीटें जीतकर कांग्रेस ने तब जो रिकॉर्ड कायम किया उसे अब तक तोड़ा नहीं जा सका है।
कांग्रेस को किसने दिलाई थी वह जीत
कांग्रेस को सबसे बड़ी जीत माधव सिंह सोलंकी ने दिलाई थी। 9 जनवरी 2021 को दुनिया से विदा हो चुके माधव सिंह सोलंकी चार बार गुजरात के सीएम रहे। उन्होंने 1985 में उनकी अगुआई में कांग्रेस पार्टी को प्रचंड बहुमत मिला था। आरक्षण दांव पर सवार सोलंकी ने पार्टी को 182 में से 149 सीटों पर जीत दिलाई थी। हालांकि, बाद में यही रणनीति भाजपा के लिए फायदेमंद भी साबित हुई और एक बार जब भाजपा ने यहां सत्ता कब्जाई तो फिर कभी मौका कांग्रेस के हाथ नहीं लगा।
KHAM रणनीति से मिला था प्रचंड बहुमत
माधव सिंह सोलंकी पहली बार 1977 में अल्पकाल के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री बने। 1980 में जब दोबारा कांग्रेस को सत्ता मिली तो सोलंकी को सीएम बनाया गया। सत्ता में आते ही उन्होंने जातिगत समीकरणों को साधने के लिए KHAM (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम) फॉर्मूला तैयार किया। सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर सोलंकी ने आरक्षण का दांव खेला। जस्टिस बख्शी कमीशन की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए उन्होंने अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के आरक्षण संबंधी आदेश पर मुहर लगा दी। हालांकि, सोलंकी के इस कदम ने राज्य में भूचाल ला दिया। आरक्षण विरोधी आंदोलन में बड़ी संख्या में लोग मारे गए। हालात ऐसे बन गए कि 1985 में सोलंकी को इस्तीफा तक देना पड़ा। लेकिन अगले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए KHAM फॉर्मुला काम कर गया और पार्टी को 149 सीटों पर जीत मिल गई।
भाजपा के लिए भी KHAM से निकला मौका
जिस फॉर्मूले ने कांग्रेस को गुजरात में उसका स्वर्ण काल दिखाया, उसी ने भाजपा के उभार के लिए नींव भी तैयार कर दी। क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम कांग्रेस के लिए गोलबंद हुए तो अगड़ी जातियों ने खुद ने खुद को उपेक्षित महसूस किया। ब्राह्मण, बनिया, पटेल जैसी जातियों को नए ठिकाने की तलाश थी जो भाजपा के रूप में पूरी हुई। इसके अलावा 1990 के दशक में राम मंदिर आंदोलन के उभार के साथ 'हिंदुत्व' के बैनर तले पिछड़ी जातियों के वोटर्स भी भाजपा के साथ आकर खड़े हो गए। इसके बाद 'भगवा' हुए गुजरात की कहानी तो आप जानते ही हैं।