Bhopal Gas Tragedy : 38 साल पहले कैसे हुई सबसे बड़ी मानव त्रासदी, जानिए भोपाल गैस त्रासदी के कारण-प्रभाव
भोपाल
1984 की भोपाल गैस त्रासदी को ज्ञात इतिहास में सबसे बड़ी मानव त्रासदी कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं। मध्य प्रदेश की राजधानी में यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से निकली गैस का जिक्र करते ही लोग आज भी उसी खौफनाक दौर में पहुंच जाते हैं, जब 38 साल पहले लोग बेमौत मरने पर मजबूर हुए। या यूं कहें कि मौत के कुएं में धकेल दिए गए। जानिए भोपाल गैस त्रासदी क्यों और कैसे हुई ?
देश की पहली बड़ी औद्योगिक आपदा
2 दिसंबर, 1984 की रात को यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड (यूसीआईएल) के कीटनाशक कारखाने से निकलने वाली गैस के कारण 15 हजार से अधिक लोगों की मौत हुई। रासायनिक विज्ञान की भाषा में गैस को मिथाइल आइसोसाइनेट (एमआईसी) नाम दिया गया। 38 साल पहले लीक हुई गैस के कारण मंजर ऐसा खौफनाक बना मानो पूरा भोपाल शहर गैस चैंबर में बदल गया हो। यह भारत की पहली बड़ी औद्योगिक आपदा थी।
6 लाख से अधिक लोगों की सेहत प्रभावित
रिपोर्ट्स के मुताबिक कम से कम 30 टन मिथाइल आइसोसाइनेट गैस के कारण 15,000 से अधिक लोगों की मौत के अलावा 6,00,000 से अधिक श्रमिकों की सेहत पर भयानक असर हुआ। भोपाल गैस त्रासदी को दुनिया की सबसे भीषण औद्योगिक आपदा के रूप में जाना जाता है। त्रासदी से पहले चेतावनी की घंटी मिलने के बावजूद प्रबंधकों और कीटनाशक कारखाने की लापरवाही के कारण हजारों मासूम लोग काल के गाल में समा गए।
1976 में पहली कंप्लेन, वर्कर की मौत भी बेअसर !
भोपाल गैस त्रासदी पर बिजनेस स्टैंडर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक 1969 में, यूनियन कार्बाइड के कारखाने को मिथाइल आइसोसाइनेट का उपयोग करके सेविन (एक कीटनाशक) का उत्पादन करने के लिए स्थापित किया गया था। सात साल बाद 1976 में, भोपाल में ट्रेड यूनियन ने प्लांट के भीतर प्रदूषण की शिकायत की। कुछ साल बाद, एक वर्कर ने गलती से बड़ी मात्रा में जहरीली फॉस्जीन (phosgene) गैस सूंघ ली और कुछ ही घंटों बाद उसकी मौत भी हो गई।
भोपाल ज्वालामुखी के किनारे पर !
यूनियन कार्बाइड कारखाने में फॉस्जीन गैस से मौत के बाद एक पत्रकार ने पड़ताल शुरू की। जर्नलिस्ट ने भोपाल के स्थानीय अखबार में अपने निष्कर्षों को प्रकाशित करते हुए लिखा, 'भोपाल के लोगों जागो, तुम एक ज्वालामुखी के किनारे पर हो।' भोपाल में त्रासदी से दो साल पहले, फॉस्जीन के संपर्क में आने वाले लगभग 45 श्रमिकों को एक अस्पताल में भर्ती कराया गया था। 1983 और 1984 के बीच फॉस्जीन, कार्बन टेट्राक्लोराइड, मिथाइल आइसोसायनेट और मोनो मिथाइलमाइन जैसी हानिकारक गैस का रिसाव होता रहा।
कैसे हुआ मिथाइल आइसोसाइनेट का रिसाव
यूनियन कार्बाइड इंडिया के भोपाल प्लांट में मिथाइल आइसोसाइनेट (MIC) स्टोर करने के लिए 68,000-लीटर क्षमता वाले तीन भंडारण टैंक थे। इनके नंबर- E610, E611, और E619 थे। त्रासदी से महीनों पहले, एमआईसी उत्पादन प्रगति पर था और टैंकों में भरा जा रहा था। किसी भी टैंक को उसकी क्षमता के 50% से अधिक भरने की अनुमति नहीं थी और टैंक को अक्रिय नाइट्रोजन गैस से दबा दिया गया था। दबाव के कारण तरल मिथाइल आइसोसाइनेट तीनों टैंकों से पंप होने लगा। टैंक-E610 में नाइट्रोजन गैस के दबाव को समाहित करने की क्षमता नहीं बची और इसलिए तरल MIC को इसमें से पंप नहीं किया जा सका।
खराब टैंक में पानी घुसा और फिर…
नियमों के मुताबिक, हर टैंक में 30 टन से ज्यादा लिक्विड एमआईसी नहीं भरा जा सकता था, लेकिन इस टैंक में 42 टन था। इसी विफलता के कारण यूनियन कार्बाइड भोपाल में मिथाइल आइसोसाइनेट का उत्पादन बंद करने पर मजबूर हो गई। रखरखाव के लिए संयंत्र को आंशिक रूप से बंद कर दिया गया। एक दिसंबर को खराब टैंक को फिर से चालू करने का प्रयास किया गया, लेकिन प्रयास विफल रहा। तब तक, संयंत्र की अधिकांश मिथाइल आइसोसाइनेट संबंधी सुरक्षा प्रणालियां खराब हो चुकी थीं। रिपोर्ट्स के मुताबिक, 2 दिसंबर की शाम तक पानी खराब टैंक में घुस गया था, जिसके कारण केमिकल रिएक्शन हुआ।
एक घंटे में निकली 30 टन MIC गैस
पानी घुसने के कारण रात तक टंकी में दबाव पांच गुना अधिक बढ़ गया। आधी रात तक MIC गैस वाले क्षेत्र में रहने वाले मजदूरों को एमआईसी गैस का असर महसूस होने लगा। रिसाव रोकने का निर्णय कुछ मिनटों में होनी थी, लेकिन तब तक टैंक में रासायनिक प्रतिक्रिया गंभीर स्थिति में पहुंच चुकी थी। लगभग 30 टन एमआईसी एक घंटे के भीतर वातावरण में फैल गया। अधिकांश भोपाल निवासियों को गैस के संपर्क में आने से ही गैस रिसाव के बारे में पता चला था।