बिजली, सड़क और पानी, बढ़ा रहे जनता की परेशानी
योगीराज योगेश
भोपाल । मध्यप्रदेश में भाजपा ने जिन समस्याओं के दम पर कांग्रेस को सरकार से बाहर किया था , वे आज भी बरकरार हैं। ये समस्या बिजली, सड़क और पानी की है जिनका अब भी पूरी तरह समाधान नहीं हो सका। प्रदेश में करीब 18 साल से भाजपा की सरकार होने के बावजूद यह समस्याएं भाजपा के लिए चुनौती बनी हुई है।मालूम हो कि 2003 में इन्हीं मुद्दों के सहारे एक साध्वी ने अहंकारी राजा की सत्ता पलट दी थी। बीते कुछ घटनाक्रमों पर गौर फरमाएं तो स्पष्ट होता है कि ये मुद्दे आज भी प्रासंगिक हैं। इन मुद्दों के मूल में कहीं न कहीं अकर्मण्य अफसर और बेलगाम नौकरशाही भी शामिल है।
महानगरों में भी खराब सड़क :
प्रदेश में इंदौर को छोड़कर 3 बड़े प्रमुख शहर भोपाल, ग्वालियर और जबलपुर की सड़कों की हालत खस्ता है। दूरस्थ अंचल की सड़कों की बात तो छोड़िए राजधानी की सड़कें गड्ढमगड्ढा हो रही हैं। कुछ दिनों पहले जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भोपाल की व्यस्ततम हमीदिया रोड से निकले तो सड़क की खस्ता हालत देखकर उनका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया। उन्होंने अफसरों को चेताया कि यह स्थिति बर्दाश्त नहीं होगी। मैं 15 दिन बाद आकर फिर स्थिति का जायजा लूंगा। दिलचस्प बात यह है की प्रकाश पर्व के मौके पर मुख्यमंत्री 15 दिन बाद जब इसी सड़क पर स्थित गुरुद्वारे पहुंचे तब भी सड़क की हालत वैसी की वैसी ही थी। यानी अफसरों के कान में जूं तक नहीं रेंगी। दूसरी ओर अपने क्षेत्र ग्वालियर में एक सड़क की खस्ता हालत देखकर मंत्री प्रद्युम्न सिंह तोमर ने जूते चप्पल का त्याग कर दिया। उन्होंने शपथ ली कि जब तक सड़क ठीक नहीं होगी तब तक वे जूते चप्पल नहीं पहनेंगे। इसमें भी तुर्रा यह है सड़क निर्माण के लिए जिम्मेदार एजेंसी के एक अफसर ने उनसे कह दिया कि अब आपको 3 महीने तक नंगे पैर ही रहना पड़ेगा, क्योंकि सड़क बनने में कम से कम 3 महीने लगेंगे। यानी अफसरों की हिमाकत देखिए कि वे सड़क बनाने की डेडलाइन तय नहीं कर रहे बल्कि मंत्री के जूते चप्पल पहनने की डेडलाइन तय कर रहे हैं।
सड़कों को लेकर एक और वाकया तब हुआ जब केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी हाल ही में मंडला आए। यहां वे बरेला से मंडला तक 400 करोड़ रुपए की लागत से बनने वाली 63 किलोमीटर लंबी टू लेन रोड के काम को देख कर इतने नाराज हुए कि उन्होंने इसके लिए मंच से जनता से माफी मांगी।
कहने का अर्थ यह है कि प्रदेश में सड़कों की खस्ताहाल से मंत्री खुश नहीं है। मुख्यमंत्री भी नाराज हैं। और केंद्रीय मंत्री को तो माफी मांग कर प्रदेश से रुखसत होना पड़ा। इन खस्ताहाल सड़कों में कुछ सड़कें पीडब्ल्यूडी की हैं और कुछ नगर निगम की। सड़कों को लेकर जब पीडब्ल्यूडी मंत्री गोपाल भार्गव से सवाल किया गया तो उन्होंने कहा कि हमारे पास सड़कों की मरम्मत के लिए बजट ही नहीं है। वहीं नगरीय प्रशासन मंत्री भूपेंद्र सिंह ने कहा कि बजट की कोई कमी नहीं है। मतलब सड़क को लेकर दो मंत्रियों के दो अलग-अलग बयान। यानी कोआर्डिनेशन का अभाव। सवाल यह भी है कि जब बजट की कमी नहीं है तो प्रदेश की सड़कें खराब क्यों है? इसका जवाब किसी के पास नहीं है। इस बीच 2023 के चुनाव को देखते हुए विधायकों ने अपने क्षेत्र की सड़कों को दुरुस्त करने के लिए मंत्रियों पर दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया है। अब यह दबाव कितना काम आएगा और यह सड़कें कब तक दुरुस्त होंगी यह तो फिलहाल तय नहीं है लेकिन इतना तय जरूर है कि जल्दी ही सड़कें दुरुस्त नहीं की गई तो जनता भाजपा को भी सड़कों पर ला देगी।
बिजली का बिल:
बीते दिनों प्रदेश की राजधानी भोपाल में बिजली कंपनी के अफसरों ने मनमानीपूर्ण रवैया अख्तियार करते हुए स्ट्रीट लाइट बंद कर दी। यह स्ट्रीट लाइट एक-दो दिन नहीं बल्कि पूरे 11 दिन बंद रही। कंपनी के अफसरों का कहना था कि नगर निगम ने बिजली बिल के ₹ 24 करोड़ बकाया जमा नहीं कराए हैं। इस बीच नगर निगम ने भी बिजली कंपनी पर 46 लाख से ज्यादा की रिकवरी निकाल दी। विवाद बढ़ा तो नगरीय प्रशासन मंत्री भूपेंद्र सिंह ने दोनों विभागों के अफसरों की बैठक बुलाई तब जाकर मामला शांत हुआ। फिर भी राजधानी के कई इलाकों की स्ट्रीट लाइट बंद रही। यह विवाद फिलहाल तो टल गया है, लेकिन इसका स्थाई समाधान निकालना जरूरी है। यह बात सही है कि नगर निगम को सही समय पर बिजली बिल जमा करना चाहिए लेकिन अफसरों को यह अधिकार किसने दिया कि वे नगर निगम की आड़ में भोली-भाली जनता को बिजली जैसी मूलभूत सुविधाओं से ही वंचित कर दे। आखिर नगर निगम की कारगुजारी की सजा जनता क्यों भुगते। स्ट्रीट लाइट बंद करने से पहले बिजली कंपनी के अफसरों के मन में यह सवाल क्यों नहीं आया? सवाल यह भी है कि बिजली समस्या का जो हल मंत्री के हस्तक्षेप के बाद निकाला गया वह पहले भी निकाला जा सकता था। कम से कम लोगों को परेशान तो होना नहीं पड़ता।
पानी की परेशानी :
नगर निगम के अफसरों की कारगुजारियों की वजह से इस बार मई माह की भरी गर्मियों में भोपाल की आधी आबादी को 6 दिन तक पीने का पानी नहीं मिला। 44 डिग्री टेंपरेचर में जब लोग पसीने – पसीने हो रहे थे तो पीने के पानी के लाले पड़ गए। कारण यह था कि कोलार पाइप लाइन ठीक करने के लिए अफसरों ने भरी गर्मी का समय चुना। पाइपलाइन की कमिश्निंग का काम 3 दिन की बजाए 5 दिन में पूरा हुआ। तब जाकर 6 दिन बाद लोगों को पानी नसीब हुआ, जबकि यह काम समय रहते पहले भी पूरा किया जा सकता था। इस पूरे मसले को लेकर जब मीडिया में खबरें चलीं तब अफसरों की तंद्रा टूटी। सवाल यह है कि विभागीय मंत्री के संज्ञान में लाए बिना अफसर ऐसे डिसीजन कैसे ले रहे हैं? क्या नगरीय प्रशासन मंत्री भूपेंद्र सिंह जी सहज, सरल स्वभाव के व्यक्ति हैं इसलिए अफसर उनके इन गुणों का फायदा उठाना चाहते हैं ? या विभागों में आपसी तालमेल नहीं है या अफसरों के बीच टकराव इतना बढ़ गया है कि वह मनमानी पूर्ण फैसले लेने से भी नहीं चूक रहे? इन सवालों का हल निकाला जाना जरूरी है।