सीता अष्टमी का व्रत माता सीता की पूजा से बढ़ता है सुख और सौभाग्य बढ़ाने वाला
14 फरवरी, सोमवार को सीताष्टमी है। मान्यता है कि इस तिथि पर देवी सीता प्रकट हुई थीं। वहीं, कुछ जगहों पर ये व्रत वैशाख महीने की नवमी को जानकी नवमी के नाम से मनाया जाता है। इस तरह ये साल में दो बार मनाया जाने वाला पर्व है। इस दिन देवी सीता की पूजा और व्रत करने की परंपरा है।
इस दिन कुंवारी कन्याएं और शादीशुदा महिलाएं व्रत रखती हैं। इस मौके पर माता सीता, भगवान श्रीराम, गणेशजी और माता अंबिका की भी पूजा होती है। इस पूजा में खासतौर से पीले फूल और इसी रंग के कपड़े शामिल किए जाते हैं। सोलह शृंगार की चीजें भी चढ़ाई जाती हैं। जो बाद में कुंवारी कन्याओं को देने की परंपरा है। इस दिन पूजा में सिर्फ पीली चीजें ही चढ़ाई जाती हैं। इस दिन दूध और गुड़ से बने पारंपरिक व्यंजनों का ही प्रसाद के रूप में भोग लगाया जाता है। सुबह-शाम पूजा करने के बाद व्रत का पारण किया जाएगा।
माता सीता का जन्म और उनके नाम
जब राजा जनक संतान पाने की इच्छा से यज्ञ के लिए हल से जमीन तैयार कर रहे थे, जब उन्हें जमीन से बच्ची मिलीं। हल की नोंक जिसे सीत कहते हैं उसी पर बच्ची का नाम सीता रखा गया। धरती देवी ने राजा जनक को बच्ची दी इसलिए उनका नाम भूसुता पड़ा। इसके बाद राजा जनक ने पाला तो जानकी और जनकसुता नाम पड़ा। वो मिथिला की राजकुमारी थीं, इसलिए उन्हें मैथिली कहा जाने लगा।
जानकी जयंती के दिन सुबह जल्दी उठकर नहाएं। इसके बाद व्रत और पूजा का संकल्प लें। चौकी पर सीताराम सहित जानकी, माता सुनयना, कुल पुरोहित शतानंद की मूर्ति या चित्र स्थापित कर उनकी पूजा करें। सीताष्टमी पर खासतौर से हल और धरती माता की पूजा करने का भी विधान है।
सबसे पहले भगवान गणेश और गौरी की पूजा करके माता जानकी का पूजन किया जाता है। माता सीता को पीले फूल, कपड़े और शृंगार का सामान अर्पित किया जाता है। इसके बाद भोग लगाकर सीता माता की आरती करना चाहिए।
सीता जयंती पर व्रत रखने वालों को सौभाग्य, सुख और संतान की प्राप्ति होती है और परिवार में समृद्धि बनी रहती है। यह व्रत विवाहित महिलाओं के लिए लाभकारी है। इस व्रत के प्रभाव से वैवाहिक जीवन की समस्याएं दूर हो जाती हैं। सुखद दांपत्य जीवन की कामना से यह व्रत किया जाता है।