कानपुर में खेली जाती है ‘क्रांतिकारी’ होली, सात दिन तक होता है आयोजन; 1942 में ऐसे हुई थी शुरुआत
कानपुर
कानपुर में आजादी से पूर्व 1942 में एक ऐसी होली हुई थी जिसमें अंग्रेजों का अहंकार छलनी हो गया था। उसी बगावत की याद में आज भी यहां होली का आयोजन होता है।
देश और दुनिया में बहुत सी क्रांतियां हुईं, लेकिन रंग खेलकर बगावत की परंपरा कानपुर में डाली गई। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आक्रोश और विरोध तो था ही, लेकिन भारतीयता के प्रति अगाध स्नेह और सौहार्द भी था। उसी बगावत की याद में आज भी यहां होली के सात दिन बाद गंगा मेला के दिन हटिया मोहल्ले से रंगों का ठेला निकलता है और रंगों से सराबोर संकरी गलियों में अपनत्व के फूल बरसते हैं। शाम को सरसैया घाट किनारे शहर के सबसे बड़े होली मिलन समारोह में गंगा-जमुनी तहजीब मुस्कुराती है।
पहले हटिया ही कानपुर का हृदय होता था। यहां बड़े स्तर पर लोहा, कपड़ा और गल्ले का कारोबार होता था। व्यापारियों के यहां स्वाधीनता के दीवाने और क्रांतिकारी डेरा जमाते, आंदोलन की रणनीति बनाते और उन्हें अंजाम देकर अंग्रेजों को नाकों चने चबवाते थे। हटिया के गुलाबचंद सेठ हर साल होली पर विशाल आयोजन करते थे।
ये है पूरी कहानी
वर्ष 1942 में होली के दिन अंग्रेज अधिकारी आए और आयोजन बंद करने को कहा। गुलाबचंद सेठ ने इससे साफ इन्कार किया तो गुस्साए अंग्रेज अधिकारियों ने गुलाबचंद को गिरफ्तार कर लिया। इसका विरोध करने पर जागेश्वर त्रिवेदी, पं. मुंशीराम शर्मा सोम, रघुबर दयाल, बालकृष्ण शर्मा नवीन, श्यामलाल गुप्त पार्षद, बुद्धूलाल मेहरोत्रा और हामिद खां को भी गिरफ्तार कर जिला कारागार, सरसैया घाट में बंद कर दिया।
इन गिरफ्तारियों से जनआक्रोश भड़क उठा। शहर के लोगों ने एक अलबेला आंदोलन छेड़ दिया, इसमें स्वतंत्रता सेनानी भी जुड़ गए। हिंदू-मुस्लिम सभी मिलकर हटिया ही नहीं, शहर के अलग-अलग हिस्सों में बस होली ही खेल रहे थे, लेकिन विरोध का यह तरीका अंग्रेजों को डराने का बड़ा हथियार बना। घबराए अंग्रेज अफसरों ने गिरफ्तारी के आठवें दिन ही लोगों को छोड़ दिया। यह रिहाई अनुराधा नक्षत्र के दिन हुई। फिर क्या था, होली के बाद अनुराधा नक्षत्र का दिन कानपुर के लिए त्योहार का दिन हो गया।